शिक्षा और पालन-पोषण uttrakhand aur uttar pradeshप्रदेश में। {{KKRachnakaarParichayशिक्षा - बी०ए, |रचनाकार=चन्द्रकुंवर बर्त्वालहिंदी में agastmuni school rudraprayag me adyapak के रूप में कार्यरत rahe। }}कार्यक्रम में शिरकत। कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित chandra kunwa parvtiya shetra ke aise kavi hai jinhe isswar nemaatra 27 warsh ka jivan diya . iske babjood unhone hindi kavita me lagbha 850 kavitaon ka yogdan kiya . ham vistar se unke krititya ki vivechana karenge. tqusn vgen rRdkyhu uk;c'''शापित भूमि से उपजा एक विलक्षण कुंवर!'''
font krutidev 10आलेखः [[अशोक कुमार शुक्ला]]
14 flrEcj dh frfFk ek= fgUnh fnol ds :Ik esa ;kn fd;s tkus dk fnol ugha gSA ;g fnol fgUnh dfork txr dh ,d ,slh foHkwfr ds fuokZ.k dk fnol Hkh gS ftlus ek= 38 o’kZ ds vius thou dky esa fgUnh dks ,slh le`}”kkyh jpuk;sa nh tks vusd fo}tuksa ds fy;s vkt Hkh “kks/k dk fo’k; cuh gq;h gSaA सितम्बर की तिथि मात्र हिन्दी दिवस के रूप में याद किये जाने का दिवस नहीं है। यह दिवस हिन्दी कविता जगत की एक ऐसी विभूति के निर्वाण का दिवस भी है जिसने मात्र 27 वर्ष के अपने जीवन काल में हिन्दी को ऐसी समृद्वशाली रचनायें दी जो अनेक विद्वजनों के लिये आज भी शोध का विषय बनी हुयी हैं। 21 vxLr अगस्त 1919 esa bZ0 esa rRdkyhu x<oky tuin ds peksyh uked LFkku es ekydksVh uke ds xzke esa ,d fu’Bkoku v/;kid Jh Hkwiky flag cRokZy ds ?kj ij ,d ckyd dk tUe gqvkA ¼buds tUe dh frfFk ds laca/k esa ;g fookn gS fd ;g में ई0 में तत्कालीन गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर एक बालक का जन्म हुआ। (इनके जन्म की तिथि के संबंध में यह विवाद है कि यह 21 vxLr अगस्त 1919 gS vFkok है अथवा 20 vxLr 1919A Mk0 g’kZef.k HkV~V }kjk fu’ikfnr “kks/k esa ;g izekf.kr gqvk fd dfooj pUnz dqaoj cRokZy dh tUe frfFk अगस्त 1919। गढवाल विष्वविद्यालय श्रीनगर मे डा0 हरिमोहन के निर्देषन में डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह प्रमाणित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की जन्म तिथि 21 vxLr अगस्त 1919 gS ½है ) उनके नाम के सम्बन्ध में भी डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह अवधारित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का असली नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था। श्री चन्द्र कुंवर की मां का दिया हुआ नाम श्रीचन्द्र था तथा उनके पिता का दिया हुआ नाम कुँवर सिंह था और इनका प्रसिद्ध साहित्यिक नाम है श्रीचन्द्रकॅुवर। इस प्रकार माँ और पिता दोनो की भावनाओं की रक्षा हो सके इसलिये उन्होंने अपना साहित्यिक नाम चन्द्रकॅुवर अपनाया था। वे अपनी माता पिता की प्रथम और इकलौती संतान थे। muds uke ds lEcU/k esa Hkh Mk0 g’kZef.k HkV~V }kjk fu’ikfnr “kks/k esa ;g vo/kkfjr gqvk fd dfooj pUnz dqaoj cRokZy dk vlyh uke dqaoj flag cRokZy FkkA Jh pUnz dqaoj dh eka dk fn;k gqvk uke JkhpUnz Fkk rFkk muds firk dk fn;k gqvk uke dqWoj flag Fkk vkSj budk izfl} lkfgfR;d uke gS JhpUnzdWqojA bl izdkj ekaW vkSj firk nksuks dh Hkkoukvksa dh j{kk gks lds blfy;s mUgksaus viuk lkfgfR;d uke pUnzdWqoj viuk;k FkkA os viuh ekrk firk dh izFke vkSj bdykSrh larku FksA muds ije fiz; fe= ia0 “kEHkw izlkn cgqxq.kk ds vuqlkj mudh izkFkfed f”k{kk xzke esa gh gq;haA rn~Ik”pkr ikSMh x<oky ds fe”ku dkyst ¼orZeku esa eSleksj bUVj dkyst½ ls उनके परम प्रिय मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा के अनुसार उनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई। तद्पश्चात पौड़ी गढ़वाल के मिशन कालेज (वर्तमान में मैसमोर इन्टर कालेज) से 1935 esa mUgksaus gkbZ Ldwy fd;k vkSj mPp f”k{kk y[kuÅ vkSj bykgkckn esa xzg.k dhA में उन्होंने हाई स्कूल किया और उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 esa bykgkckn ls LUkkrd djus ds Ik”pkr y[kuÅ fo”ofo|ky; esa izkphu Hkkjrh; bfrgkl ls ,e0 ,0 djus ds fy;s izos“k fy;k tgka muds fe= ia0 “kEHkw izlkn cgqxq.kk th jgrs FksA os nksuks ogka lkFk gh jgus yxs Fks tgka Jh cgqxq.kk us mUgsa vR;f/kd Lusg vkSj lacy iznku fd;kA cka> vkSj cqjkal dh tMksa ls fjlrk gqvk ikuh ihus dh vknr Mky pqds Jh cRokZy ls eSnkuh {ks=ksa dh vkik/kkih lgu u gks ldh vkSj os chekj jgus yxs vkSj varr% bruk chekj gq;s fd में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया जहां उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी रहते थे। वे दोनो वहाँ साथ ही रहने लगे थे जहाँ श्री बहुगुणा ने उन्हें अत्यधिक स्नेह और संबल प्रदान किया। बांज और बुरांस की जड़ों से रिसता हुआ पानी पीने की आदत डाल चुके श्री बर्त्वाल से मैदानी क्षेत्रों की आपाधापी सहन न हो सकी और वे बीमार रहने लगे और अंततः इतना बीमार हुए कि 1941 ds fnlEcj ekg esa vkxs dh i<kbZ NksMdj vius xkao ckil ykSV vk;sAके दिसम्बर माह में आगे की पढ़ाई छोड़कर अपने गाँव वापस लौट आए । लखनऊ से लौटकर उन्हें पंवालिया जाना पडा जो उनके जन्म ग्राम मालकोटी से कुछ दूरी पर स्थित था और मालकोटी से अधिक समृद्ध और प्राकृतिक शोभा से युक्त था। यह चमोली जनपद में रूद्रप्रयाग और केदारनाथ के बीच केदारनाथ मार्ग पर भीरी के नजदीक बसा ग्राम है जिसे बर्त्वाल परिवार ने सिंचित और अधिक उत्पादकता रखने वाली भूमि पर हरियाली और खुशहाली की उम्मीदों के साथ लिया था। y[kuÅ ls ykSVdj mUgsa iaokfy;k tkuk iMk tks muds tUe xzke ekydksVh ls dqN nwjh ij fLFkr Fkk vkSj ekydksVh ls vf/kd le`} vkSj izkd`frd “kksHkk ls ;qDr FkkA ;g peksyh tuin esa :nziz;kx vkSj dsnkjukFk ds chp dsnkjukFk ekxZ ij Hkhjh ds utnhd clk xzke gS ftls cRokZy ifjokj us flafpr vkSj vf/kd mRikndrk j[kus okyh Hkwfe ij gfj;kyh vkSj [kq”kgkyh dh mEehnksa ds lkFk fy;k FkkA bl LFkku ds laca/k esa Mk0 mek”kadj lrh”k us ^fgykal* ekfld ds flrEcj इस स्थान के संबंध में डा0 उमाशंकर सतीश ने''' ‘हिलांस’''' मासिक के सितम्बर 1980 vad esa izdkf”kr ys[k esa dgk gS fd og xzke iaokfy;k dsnkjukFk ds iaMsk ds vf/kdkj{ks= esa gqvk djrk FkkA bu iaMksa us fdlh ykyk ls अंक में प्रकाशित लेख में कहा है कि वह ग्राम पंवालिया केदारनाथ के पंडेा के अधिकारक्षेत्र में हुआ करता था। इन पंडों ने किसी लाला से एक हजार रूपये कर्ज लिया था जिसे चुकाने का दबाव उन पर था। जब लाला के कर्ज केा चुकाने में उन्हे सफलता नहीं मिली तो विपत्ति के समय में कर्ज को चुकाने के लिये इस गाँव पंवालिया को बेच कर कर्ज की अदायगी करने की सोची। इसी समय उस लाला ने बडी क्रूरता के साथ पंवालिया को मात्र हजार रूपये में बर्त्वाल परिवार को बेचने का प्रस्ताव किया। मालकोटी से अलग एक नया धरौंदा बनाने के अवसर का उपयोग करने की आशा से बर्त्वाल परिवार ने यह जमीन ले ली। यह मान्यता है कि बुरे दिनों में भूमि और भवन से वंचित होने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों ने इस भूमि पर बसने वालों को न फलने का अभिशाप दिया। उन्होंने जब पंवालिया को छोडा तो वहां की मिट्टी कई देवस्थानों को चढाई और बददुआयें दी। बददुआवों के असर ने बर्त्वाल परिवार को छिन्न भिन्न करना प्रारंभ कर दिया। जब से बर्त्वाल परिवार ने पंवालिया में डेरा डाला,d gtkj :Ik;s dtZ fy;k Fkk ftls pqdkus dk ncko mu ij FkkA tc ykyk ds dtZ dsk pqdkus esa mUgs lQyrk ugha feyh rks foifRr ds le; esa dtZ dks pqdkus ds fy;s bl xkao iaokfy;k dks csp dj dtZ dh vnk;xh djus dh lksphA blh le; ml ykyk us cMh dzwjrk ds lkFk iaokfy;k dks ek= gtkj :Ik;s esa cRokZy ifjokj dks cspus dk izLrko fd;kA ekydksVh ls vyx ,d u;k /kjkSank cukus ds volj dk mi;ksx djus dh vk”kk ls cRokZy ifjokj us ;g tehu ys yhA ;g ekU;rk gS fd cqjs fnuksa esa Hkwfe vkSj Hkou ls oafpr gksus okys mu /kkfeZd O;fDr;ksa us bl Hkwfe ij clus okyksa dks u Qyus dk vfHk”kki fn;kA mUgksaus tc iaokfy;k dks NksMk rks ogka dh feV~Vh dbZ nsoLFkkuksa dks p<kbZ vkSj cnnqvk;sa nhA cnnqvkoksa ds vlj us cRokZy ifjokj dks fNUu fHkUu djuk izkjaHk dj fn;kA tc ls cRokZy ifjokj us iaokfy;k esa Msjk Mkyk] rHkh ls dfooj chekjh dh pisV esa vk x;s vkSj mldk ifjokj Hkh dkykUrj esa izHkkfor gqvkA तभी से कविवर बीमारी की चपेट में आ गये और उसका परिवार भी कालान्तर में प्रभावित हुआ। os vius thou dky esa viuh jpukvksa dk lqO;ofLFkr :Ik ls izdk”ku ugha dj ik;sA Mk0 mek”kadj lrh”k us ^pUnzdqoj cRokZy dh dfork;sa Hkkx&,d* esa ;g jgL;ksn~?kkVu fd;k gSa fd mUgksaus viuk fy[kk ladkspo”k if=dkvksa esa Hkh ugha HkstkA cl Lokr% lq[kk; dfork;sa fy[kh vkSj ikl j[k yha cgqr gqvk rks vius fe=ksa dks Hkst nhaA muds fe= ia0 “kEHkw izlkn cgqxq.kk th dks mudh jpuk;s lqO;ofLFkr djus dk Js; tkrk gS ftUgksaus वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘चन्द्रकुवर बर्त्वाल की कवितायें भाग-एक’ में यह रहस्योद्घाटन किया हैं कि उन्होंने अपना लिखा संकोचवश पत्रिकाओं में भी नहीं भेजा। बस स्वातः सुखाय कवितायें लिखी और पास रख लीं बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज दीं। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने 350 dforkvksa dk laxzg laikfnr fd; A Mk0 mek”kadj lrh”k us Hkh mudh कविताओं का संग्रह संपादित किय । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 dforkvksa o xhrksa dk izdk”ku fd;k FkkA mudh nwj}f’V bruh rh[kh Fkh fd ml le; gh orZeku f”k{kk iz.kkyh vkSj vaarjk’Vzh; cktkjokn ds nq’izHkkoksa dks Hkkai fy;k FkkA ^eSdkys ds f[kykSus* uked dfork dk va”k nsf[k;s%&कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। उनकी दूरदृष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। esM bu tkiku ] '''‘मैकाले के खिलौने’''' नामक कविता का अंश देखियेः-f[kykSukas ls lLrs gSa ykMZ eSdkys ds ;s u;s f[kykSus मेड इन जापान , खिलौनों से सस्ते हैं bu dks ys yks iSls ds lkS&lkS nks&nks lkS jk’Vzh;rk dk Hkko mudh jpukvksa esa tgka Hkh mHkjrk Fkk iwjs iSusiu ds lkFk mHkj dj vkrk Fkk rHkh rks vkt ds ifjn`’; mUgksus lRrj lky igys gh [khapdj j[k fn;s FksA mudh Nqjh uked dfork dk va”k nsf[k;s %&लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने etnwjksa dh ljdkj vksgbVyh rw tk; tgUue dks]इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे। yhx lh ukTउनकी''' छुरी''' नामक कविता का अंश देखिये:-kjh tks NksMhukenZ dgsa D;k ge rqe dksAJh cRokZy dh vc rd vUosf’kr yxHkx vkB lkS ls vf/kd xhr vkSj dfork;sa ;g fl} djrh gSa fd pUnzdqoj cRokZy fgUnh ds eats gq;s dfo Fks A mRrjk[kमजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को, लीग सी नाज्.M ds lqifjfpr bfrgkldkj dSIVsu “kwjohj flag iaokj dk er gS fd egkdfo lqfe=kuUnu iUr vkSj egkizk.k fujkyk ls Hkh pUnz dqoj cROkZky dh /kfu’Brk FkhA mRrjk[k.M Hkkjrh =Sekfld tuojh ls ekpZ ारी जो छोडी नामर्द कहें क्या हम तुम को। श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे । उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की घनिष्ठता थी। '''’उत्तराखण्ड भारती'''’ त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 ds i`’B के पृष्ठ 67 esa ;g vafdr gS fd os fujkyk th ds lkFk rks पर यह अंकित है कि निराला जी के साथ 1939 ls से 1942 rd viuk la/k’kZe; thou muds ikl jgdj fcrk;k FkkA mUgksaus तक उन्होंने अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था। उन्होंने 25 ls vf/kd x| jpuk;sa Hkh fy[kha gSa ftlls dgkuh ]से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिससे कहानी ,dkadh] fucU/k एकांकी,oa vkykspuk;sa Hkh gSa ijUrq muds fy[ks i| ds vikj laxzg ls ;g fl} gksrk gS fd os ewyr% dfo FksA vke fgUnqLrkuh dh rjg mUgksaus Hkh vktknh dk liuk ns[kk Fkk ysfdu mudh nwj}f’V vktknh ds ckn ds Hkkjr dks Hkh ns[k ldrh Fkh “kk;n blhfy;s mUgksaus fy[kk Fkk%& निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः- g`n;ksa esa tkxsxk izsevkSj u;uksa esa ped mBsxk lR;] हृदयों में जागेगा प्रेम और feVsaxs >wBs liusAy[kuÅ ls okfil ykSVdj jkt;{ek ls viuh :X.krk ds ikap N% o’kZ iaokfy;k esa fcrkus ds nkSjku Jh cRokZy us eq[; :Ik ls viuh “kkjhfjd ihMk vkSj fojg osnuk ds Loj dks eq[kj fd;k%&नयनों में चमक उठेगा सत्य, edMh dkyh ekSr gS] jksx mlh ds tky] eD[kh ls ftlesa Qals ]pUnz dqaoj cRokZyAमिटेंगे झूठे सपने। [kMh gks jgh gM~fM;ka ]lw[k jgh gS [kkyA vius nq[kksa ds lEcU/k esa dFkkdkj ;”kiky dsk Hksts x;s लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पाँच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को मुखर कियाः- मकडी काली मौत है,d i= रोग उसी के जाल, मक्खी से जिसमें फँसे ,चन्द्र कुँवर बर्त्वाल। खडी हो रही हड्डियाँ, सूख रही है खाल। अपने दुखों के सम्बन्ध में कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 tuojh जनवरी 1947 dks mUgksaus fy[kk Fkk%&को उन्होंने लिखा थाः- fiz; ;”kiky th]vR;ar “kksd gS fd eSa e`R;q”kS;k ij iMk gqvk gwW vkSj chl& iPphl fnu vf/kd ls vf/kd D;k pywaxkप्रिय यशपाल जी, अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूँ और बीस-पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा....सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूँ और इधर उधर अस्त-व्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ। बीस -पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा। और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद वे शायद आजाद भारत की हवा में कुछ साँसे लेने के लिए 14 सितम्बर तक जिन्दा रहे। 14 सितम्बर 1947 की रात हिमालय के लिये काल रात्रि साबित हुई जब हिमालय के अमर गायक चन्द्रकुवर बर्त्वाल ने सदा सदा के लिए इस लोक को छोड दिया और हमेशा के लिए सो गए। ऐसा था वह रविवार का दिन। वे चले गए और अपने पीछे अपनी अव्यवस्थित काव्य संपदा को यह कह कर छोड गये-- मैं सभी के करूण-स्वर हूँ सुन चुका हाय मेरी वेदना को पर न कोई गा सका। भारत में सनसनीखेज खुलासे करने के लिये विख्यात '''‘तहलका’''' पत्रिका द्वारा हाल ही 2011 में उत्तराखंड के दस महानायकों की सूची में कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल को स्थान देते हुये लिखा गया हैः- हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रतीक कविवर सुमित्रानंदन पंत तो देश दुनिया के साहित्य जगत में प्रसिद्व हैं ही इसलिये तहलका ने चुना हिमवंत के कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल को जिन्होंने मात्र 28 साल की उम्र में हिंदी साहित्य को अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना दे दिया था। समीक्षक चंद्र कुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास मानते हैं। प्रारंभ में वे '''‘रसिक''' नाम से लिखते थे।कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की डायरी में एक स्थान पर लिखा हैः- मेरा ध्येय हिंदी की सेवा करना होगा। मेरा आजन्म प्रयास होगा कि हिंदी को कोई नयी चीज भेंट करूं जो मेरे ही घर की बनी हो, विलायत जापान से बनकर नहीं आयी हो। डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938 साहित्यकार मंगलेश डबराल लिखते हैः- ‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां-अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’ प्रसिद्व विद्वान डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों मेंः- ‘‘श्री चंद्र कुंवर बर्त्वाल कब हिंदी संसार में आए और कब चले गए इसका किसी को पत नहीं लगा, लेकिन उनके रूप में हिंदी साहित्य ने अपना सबसे बडा गीति काब्य रचयिता पाया और खो दिया।’’ चन्द्रकुंवर बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। हिन्दी साहिन्य के भण्डार की समृद्वि और हिन्दी काव्य जगत मंे उनका योगदान विशेष उल्लेखनीय है। हिमालय का सौंदर्य और उसके विविध चित्र उनके काव्य में यत्र तत्र अनायास ही बिखरे मिल जाते है। वे मूलतः कवि थे। इसलिये गीत और कवितायंे उन्होने मुख्य रूप से लिखी हैं। अव तक उपलब्ध और अन्वेषित रचनाओं के आधार पर कह जा सकता हैकि उन्होने लगभग आठ सैा से अधिक गीत ओर कवितायें लिखी । इसके अतिरिक्त करीब 25 से अधिक गद्य रचनायें की , जिनमें कहानी, एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनाऐं प्रमुख हैं। कवि अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाए थे। यह श्रेय उनके तित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा को मिला। अब डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया हेै। कवि का कृतित्व इस प्रकार है। 1-'''पयस्विनी,''' 350 कविताओं का पं0 शंभूप्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित संकलन 2-'''म्ेाधनन्दिनी''', तीन भागों में संपादित संकलन 1953 3-'''जीतू,''' 100 कविताओं का संकलन 1951 प्रकाशक शंभूप्रसाद बहुगुणा ,आई टी कालेज लखनऊ 4-'''कंकड-पत्थर,''' 70 कविताओं का संकलन 5-'''गीत माधवी,''' 60 गीतों का संकलन ,प्रकाशक कुसुमपाल नीहारिका राय विहारी रोड़,लखनऊ 6-'''प्रणयिनी,''' तीन एकांकियों का संकलन, प्रकाशक कुसुमपाल नीहारिका राय विहारी रोड़,लखनऊ '''7-''''''विराट-ज्योति,''' 34 प्रगतिशील कविताओं का संकलन 8-lqcg dks '''नागिनी,d nks ?kaVs fcLrj ls eS mB ldrk gwW vkSj b/kj m/kj vL;O;Lr iMh dforkvksa dks ,d dkih ij fy[kus dh dksf”k”k djrk gwWA chl & iPphl fnuksa esa ftruk fy[k ikÅaxk] vkids ikl Hkst nwaxkA''' गद्य कृतियों का पं0 शंभूप्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित संकलनvkSj lpeqp bu “kCnksa dks fy[kus ds ckn os “kk;n vktkn Hkkjr dh gok esa dqN lkals ysus ds fy;s 14 flrEcj rd ftUnk jgsA 14 flrEcj 1947 dh jkr fgeky; ds fy;s 9-'''विराट-हृदय,''' dky jkf= lkfcr gq;h tc fgeky; ds vej xk;d pUnzdqoj cRokZy us lnk lnk ds fy;s bl yksd dks NksM fn;k vkS dHkh tkxdj u mBus ds lks x;kA प्रकाशक अलनन्दा-मंदाकिनी प्रकाशन,slk Fkk og jfookj dk fnuA os pys x;s vkSj vius ihNs viuh vO;ofLFkr dkO; laink dks ;g dg dj NksM x;s%&लक्षमण भवन हुसैन गंज, लखनऊeSa lHkh ds d[http://www.k&Loj gwW lqu pqdkgadyakosh.org/gk; esjh osnuk dks ij u dksbZ xk ldkA/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2 चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की गद्य कृतियों के लिये कृपया गद्यकोश पर जाऐं]