"माया महा ठगनी हम जानी / कबीर" के अवतरणों में अंतर
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− | माया महा ठगनी हम | + | माया महा ठगनी हम जानी |
+ | तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी | ||
+ | केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी | ||
+ | पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी | ||
+ | योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी | ||
+ | काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी | ||
+ | भगतन की भगतिन वे बैठी ब्रह्मा के ब्रह्माणी | ||
+ | कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी | ||
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+ | |भावार्थ=मन में उठने वाली समस्त लालसाएँ व इच्छाएँ हमको ठगने वाली वाली होती हैं। कबीर के अनुसार यह अनगिनत इच्छाएँ व लालसाएँ माया का ही रूप है। यही माया हमें अवांछित रास्तों की ओर धकेलती है। इस माया में तीनों प्रकार के गुणों यथा- सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का वास होता है और वह अपने इन्हीं गुणों से लोगों को अपने जाल में फँसाती है। | ||
− | + | भगवान विष्णु के यहाँ यह माया लक्ष्मी होकर विराजती है, भगवान शिव के यहाँ यह पार्वती होकर रहती है। पूजा करने वाले पंडितों के यहाँ यह मूर्ति के रूप में दिखाई देती है, तीर्थ स्थानों पर जाकर अपने पाप धोने वालों के लिए यह माया पानी के रूप में दिखाई देती है। योगी के यहाँ पर इस माया का स्वरूप योगिनी हो जाता है, बड़े से बड़े राजा और महाराजा के राजपाट में यह माया रानी के रूप में रहती है। इस माया की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहीं तो यह बहुमूल्य हीरा होकर रहती है और कहीं पर फूटी कौड़ी बनकर बैठ जाती है।भक्तों के यहाँ यह माया भक्तिन के रूप में बैठती है, तुर्कों के यहां यह माया तुर्किनी (तुर्क की स्त्री) होकर रहती है। | |
− | + | कबीर दास जी कहते हैं जो ईश्वर का सबसे सच्चा भक्त है उसको यह माया अपने जाल में नहीं फँसा पाती है इसके उलट यह माया, इच्छा और लालसा ईश्वर के सच्चे बंदे के हाथों बिक जाती है। | |
− | + | कबीर ने यहाँ पर माया का मानवीकरण करते हुए उसे स्त्रीलिंग के रूप में प्रस्तुत किया है, यही माया हमें संसार के भोग- विलास में ले जाती है तथा हमारे जीवन का जो वास्तविक अर्थ होता है उससे हमें दूर कर देती है। | |
− | + | '''विशेष''' - कई विद्वानों ने माया को स्त्री माना है। उनके विचारानुसार स्त्री ही मनुष्य को भटकाती है लेकिन इसका खंड़न करते हुए, मैं यह मानती हूँ कि कबीर स्त्री विरोधी नहीं थे। यहाँ आत्मा की बात की जा रही है जो समस्त स्त्री व पुरुष में होती है और उसे ही स्त्रीलिंग के रूप में देख रहे हैं जिसका कई वर्षों से गलत प्रयोग किया जा रहा है। | |
− | + | |चित्र=Usha-dashora-kavitakosh-200px.png | |
− | + | |लेखक=उषा दशोरा | |
− | + | |योग्यता=सहायक शिक्षिका (हिंदी) | |
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19:58, 13 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
माया महा ठगनी हम जानी
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी
केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी
पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी
योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी
काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी
भगतन की भगतिन वे बैठी ब्रह्मा के ब्रह्माणी
कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी
भगवान विष्णु के यहाँ यह माया लक्ष्मी होकर विराजती है, भगवान शिव के यहाँ यह पार्वती होकर रहती है। पूजा करने वाले पंडितों के यहाँ यह मूर्ति के रूप में दिखाई देती है, तीर्थ स्थानों पर जाकर अपने पाप धोने वालों के लिए यह माया पानी के रूप में दिखाई देती है। योगी के यहाँ पर इस माया का स्वरूप योगिनी हो जाता है, बड़े से बड़े राजा और महाराजा के राजपाट में यह माया रानी के रूप में रहती है। इस माया की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहीं तो यह बहुमूल्य हीरा होकर रहती है और कहीं पर फूटी कौड़ी बनकर बैठ जाती है।भक्तों के यहाँ यह माया भक्तिन के रूप में बैठती है, तुर्कों के यहां यह माया तुर्किनी (तुर्क की स्त्री) होकर रहती है।
कबीर दास जी कहते हैं जो ईश्वर का सबसे सच्चा भक्त है उसको यह माया अपने जाल में नहीं फँसा पाती है इसके उलट यह माया, इच्छा और लालसा ईश्वर के सच्चे बंदे के हाथों बिक जाती है।
कबीर ने यहाँ पर माया का मानवीकरण करते हुए उसे स्त्रीलिंग के रूप में प्रस्तुत किया है, यही माया हमें संसार के भोग- विलास में ले जाती है तथा हमारे जीवन का जो वास्तविक अर्थ होता है उससे हमें दूर कर देती है।
विशेष - कई विद्वानों ने माया को स्त्री माना है। उनके विचारानुसार स्त्री ही मनुष्य को भटकाती है लेकिन इसका खंड़न करते हुए, मैं यह मानती हूँ कि कबीर स्त्री विरोधी नहीं थे। यहाँ आत्मा की बात की जा रही है जो समस्त स्त्री व पुरुष में होती है और उसे ही स्त्रीलिंग के रूप में देख रहे हैं जिसका कई वर्षों से गलत प्रयोग किया जा रहा है।