{{KKCatKavita}}
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'''8-पीड़ा'''
तुमसे दूर होकर
विरह को जीने में
असहनीय पीड़ा
बार-बार मरने जैसी।
'''9-फैलाओं अपनी बाँहें'''
'''13-पत्थर होती अहल्या'''
मदमस्त इंद्र गौतम भी वैसा वैसे ही सशंकित क्रुद्धकिन्तु, राम हो गया गए तटस्थ द्रष्टासंभवतः ; स्पर्श करना भूल गया हैगए हैं;इसीलिए शिलाएँ अब
पुनः अहल्या नहीं बन पाती
टूटती-पिसती हैं
शब्दों को पढ़ना तो दूर
मुझ पर पड़ी- धूल भी नहीं झाड़ते !
'''15-अथाह प्रेम'''
उसने कहा-
मुझे तुमसे अथाह प्रेम है
मैंने कहा-
तुम्हें यह प्रेम मुझसे है
या स्वयं से !
'''16-कामनाएँ'''
लहलहाती फसल -सी
कामनाएँ उसकी
ओलावृष्टि -सी युग दृष्टि
विवश कृषक- सी वह
फिर भी चुनती
ओलों को मोती- सा
-0-
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