[[Category:{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन}}{{KKPageNavigation|पीछे=मधुशाला / भाग १ / हरिवंशराय बच्चन|आगे=मधुशाला / भाग ३ / हरिवंशराय बच्चन|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन]][[Category:कविताएँ]]}}
[[Category:रुबाई]]
{{KKSandarbh|लेखक=हरिवंशराय बच्चन|पुस्तक=मधुशाला|प्रकाशक=|वर्ष=1935|पृष्ठ=}}<poem>बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,<br>हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,<br>राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,<br>जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।<br><br>
सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,<br>सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,<br>धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,<br>झगा जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।<br><br>
भुरा बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल चंचल प्याला,<br>छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,<br>पटे कहाँ से, मधु मधुशाला औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,<br>जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।<br><br>
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,<br>पी लेने पर तो उसके मुह मुँह पर पड़ जाएगा ताला,<br>दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,<br>विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।<br><br>
हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,<br>वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,<br>स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,<br>पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।<br><br>
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,<br>एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,<br>दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,<br>दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।<br><br>
नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,<br>कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,<br>जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,<br>जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।<br><br>
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,<br>बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,<br>बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,<br>बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।<br><br>
सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,<br>मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,<br>मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,<br>कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।<br><br>
सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,<br>बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,<br>झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,<br>बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।<br><br>
तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,<br>सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,<br>मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,<br>फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।<br><br>
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,<br>भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,<br>हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,<br>आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।<br><br>
पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,<br>भरी हुई है जिसके अंदर पिरमलपरिमल-मधु-सुरिभत हाला,<br>माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,<br>झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।<br><br>
प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,<br>छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,<br>छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली<br>हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।<br><br>
मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला<br>भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,<br>हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,<br>छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।<br><br>
साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,<br>तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,<br>अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,<br>प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।<br><br>
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,<br>बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,<br>जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते<br>सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।<br><br>
अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला<br>किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,<br>पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी<br>तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।<br><br>
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला<br>किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,<br>किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी<br>किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।<br><br>
साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,<br>जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,<br>योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,<br>देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।<br><br/poem>