लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन]]}}[[Category:कविताएँ]]{{KKPageNavigation[[Category:|पीछे=मधुशाला / भाग ६ / हरिवंशराय बच्चन]]|आगे=|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन}}{{KKCatRubaayi}}<poem>वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~मतवालापन हाला से लेकर मैंने तज दी है हाला,पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,साकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया,मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।
वह हालामदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छूंछा प्याला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,<br>जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबंिबत प्रतिपलगहरी, वह मेरा प्यालाठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,<br>मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती हैकितनी थोड़ी सी यौवन की हाला,<br>हा, मैं पी पाया!भेंट जहाँ मस्ती की मिलती बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।<br><br>जीवन मधुशाला।।१२३।
मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,<br>पागलपन लेकर प्याले सेकहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, मैंने त्याग दिया कहाँ गया स्वर्णिम प्याला,<br>!साकी से मिलपीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गयाहाय,<br>कब पहचाना?मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।<br><br>फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।
मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्यालाअपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,<br>गहरीअपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,<br>कितनी थोड़ी सी यौवन की हालाफिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -अब न रहे वे पीनेवाले, हा, मैं पी पायाअब न रही वह मधुशाला!<br>बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।<br><br>।१२५।
कहाँ 'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया वह स्वर्गिक साकीउसको, कहाँ गयी सुरिभत 'हाला,<br>'कहँा 'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया स्वपिनल मदिरालय'प्याला', कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!<br>पीनेवालों ने मदिरा का मूल्यक्यों न मौलवी चौंकें, हाय, कब पहचाना?<br>बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जीफूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।<br><br>'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला, <br>अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,<br>कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,फिर भी वृद्धों से जब पूछा पीनेवालों को है एक यही उज्ञल्तऌार पाया -<br>अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।<br><br>पहेली मधुशाला।।१२७।
'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसकोजितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला, 'हाला'<br>'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला'जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,<br>क्यों न मौलवी चौंकेंजितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंिडत जी<br>'मय-महिफल' अब अपना ली जितना हो जो रिसक, उसे है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।<br><br>उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।
कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,<br>कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,<br>कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता आँख चार हों जिसकी मेरे साकीसे दीवाना हो,<br>फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।<br><br>पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,<br>जितनी मन की मादकता हो उतनी हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक है हाला,<br>जितनी उर हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्यालाहर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,<br>जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।<br><br>हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,<br>जिस कर को छूू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,<br>आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना होमें सबने अपना प्यारा साकी देखा,<br>पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।<br><br>जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।
हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला<br>,हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला<br>,हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता किसी समय की<br>सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।<br><br>नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-कुचल हसरतें कितनी अपनी , हाय, बना पाया हाला,<br>मेरे प्याले में सबने कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया अपना-अपना प्याला,<br>!मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखापी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,<br>जिसकी जैसी रुिच थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।<br><br>कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला,<br>यदि थोड़ी-सी भी यह मदिरालय की आँखें हैंमेरी मदमाती साकीबाला, नहीं-नहीं मधु का प्याला,<br>किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रहीशून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,<br>नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। <br><br>जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।
कुचल हसरतें कितनी अपनीबड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, हायकलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, बना पाया हाला,<br>कितने अरमानों मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को करके ख़ाक बना पाया प्याला!<br>,पी पीनेवाले चल देंगेविश्व, हाय, न कोई जानेगा,<br>कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।<br><br>तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।
विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला<br>यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,<br>शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,<br>जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।<br><br>'''पिरिशष्ट से'''
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबालास्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,<br>किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,<br>मान-दुलारों पर उपदेश कुशल बहुतेरों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी कोमैंने यह सीखा है,<br>विश्वस्वयं नहीं जाता, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।<br><br>औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
'''पिरिशष्ट से'''<br><br>मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,<br>स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,<br>पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा हैबढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के,<br>इससे हीस्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।<br><br>
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,<br>मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌार प्रतिशत हाला,<br>पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,<br>मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।<br><br> बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,<br>बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,<br>पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही<br>और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।<br><br> पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला<br>बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला<br>किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी<br>तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।<br><br/poem>