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"महानगर / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 
महानगर यह
 
महानगर यह
 
 
महाराक्षस की आँतों-सा
 
महाराक्षस की आँतों-सा
 
 
फैला-छिछड़ा
 
फैला-छिछड़ा
 
 
दूर-दूर तक, दसों दिशा में,
 
दूर-दूर तक, दसों दिशा में,
 
 
ऐंड़ा-बैंड़ा, उलझा-पुलझा;
 
ऐंड़ा-बैंड़ा, उलझा-पुलझा;
 
 
पथों, मार्गों, सड़कों, गलियों,
 
पथों, मार्गों, सड़कों, गलियों,
 
 
उप-गलियों, कोलियों, कूचों की भूल-भुलैया,
 
उप-गलियों, कोलियों, कूचों की भूल-भुलैया,
 
 
जिनमें, जिन पर मवेशियों से लेकर
 
जिनमें, जिन पर मवेशियों से लेकर
 
 
लेमूशीनों तक की-
 
लेमूशीनों तक की-
 
 
सब प्रकार तक की- सवारियों की हरकत, भगदड़।
 
सब प्रकार तक की- सवारियों की हरकत, भगदड़।
 
 
रेंक गधों की, घोड़ों की हिनहिनी,
 
रेंक गधों की, घोड़ों की हिनहिनी,
 
 
टुनटुनी सायकिलों की,
 
टुनटुनी सायकिलों की,
 
 
हॉर्न ट्रकों, लॉरियों, बसों की,
 
हॉर्न ट्रकों, लॉरियों, बसों की,
 
 
पों-कर-पों मोटर कारों की
 
पों-कर-पों मोटर कारों की
 
+
इंसानों के शोर-शड़प्पे, हो-हल्ले से
इंसानों के शोर-शड़प्‍पे, हो-हल्‍ले से
+
 
+
 
होड़ लगाती।
 
होड़ लगाती।
 
+
झुग्गी-झोड़ियों, घर फ्लैटों,
झुग्‍गी-झोड़‍ियों, घर फ्लैटों,
+
 
+
 
बँगलों-आकाशी महलों, दूकान, दरीबों,
 
बँगलों-आकाशी महलों, दूकान, दरीबों,
 
 
कचहरियों, दरबार, दफ़्तरों,
 
कचहरियों, दरबार, दफ़्तरों,
 
 
और कोटलों और होटलों में
 
और कोटलों और होटलों में
 
 
जीवन के सौ जंजालों,
 
जीवन के सौ जंजालों,
 
 
लेन-देन, छीनाझपटी, चालों-काटों,
 
लेन-देन, छीनाझपटी, चालों-काटों,
 
 
बहसों, हिदायतों, शिकायतों,
 
बहसों, हिदायतों, शिकायतों,
 
+
सरकारी कारगुजा़री, भ्रष्टाचारी,
सरकारी कारगुजा़री, भ्रष्‍टाचारी,
+
 
+
 
टंकन-यंत्रों, शासन तंत्रों,
 
टंकन-यंत्रों, शासन तंत्रों,
 
+
तफ़रीहों, छूरी-काँटों, प्याली-प्लेटों,
तफ़रीहों, छूरी-काँटों, प्‍याली-प्‍लेटों,
+
 
+
 
बोतलों-गिलासों की गहमागहमी
 
बोतलों-गिलासों की गहमागहमी
 
 
भीषण गहमागहमी
 
भीषण गहमागहमी
 
 
भीषण हलचल है, चहल-पहल है।
 
भीषण हलचल है, चहल-पहल है।
 
  
 
दाँते ने
 
दाँते ने
 
 
जो नरक किया था कल्पित
 
जो नरक किया था कल्पित
 
 
उस पर लिखा हुया था-
 
उस पर लिखा हुया था-
 
 
'इसके अंदर आने वालों,
 
'इसके अंदर आने वालों,
 
 
अपनी सब आशाएँ छोड़ों।'
 
अपनी सब आशाएँ छोड़ों।'
 
 
महानगर के महा द्वार पर
 
महानगर के महा द्वार पर
 
 
लिखा हुया है-
 
लिखा हुया है-
 
 
'इसके अंदर आने वालों,
 
'इसके अंदर आने वालों,
 
 
सबसे पहले
 
सबसे पहले
 
 
अपनी मानवता छोड़ो।
 
अपनी मानवता छोड़ो।
 
+
बाद किसी संस्था, समाज दल, संघ, मंच से
बाद किसी संस्‍था, समाज दल, संघ, मंच से
+
 
+
 
कारबार, अख़बार, मलखा़ने, दफ़्तर से
 
कारबार, अख़बार, मलखा़ने, दफ़्तर से
 
 
नाता जोड़ों;
 
नाता जोड़ों;
 
 
और नागरिक सफल अगर बनना चाहो,
 
और नागरिक सफल अगर बनना चाहो,
 
+
अपनत्व मिटाओ;
::अपनत्‍व मिटाओ;
+
 
+
 
अभिनय करना सीखो
 
अभिनय करना सीखो
  
 
औ' भूमिका जहाँ, जब, जैसी बैठे,
 
औ' भूमिका जहाँ, जब, जैसी बैठे,
 
+
उसे निभाओ।'
::उसे निभाओ।'
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+
 
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महानगर यह महामंच है;
 
महानगर यह महामंच है;
 
 
असफल होने यहाँ नहीं कोई आया है;
 
असफल होने यहाँ नहीं कोई आया है;
 
+
सिद्धि, समृद्धि, सफलता का हरेक अभिलाषी,
सिद्ध‍ि, समृद्धि, सफलता का हरेक अभिलाषी,
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ईर्ष्या-प्रेरित अपने सहकर्मी, सहयोगी, समकक्षी से;
 
+
यहाँ न रिश्ता,
ईर्ष्‍या-प्रेरित अपने सहकर्मी, सहयोगी, समकक्षी से;
+
 
+
यहाँ न रिश्‍ता,
+
 
+
 
यहाँ न नाता,
 
यहाँ न नाता,
 
 
औ' न मिताई,
 
औ' न मिताई,
 
 
भाई-बंदी,
 
भाई-बंदी,
 
 
यहाँ एक है सिर्फ दूसरे का प्रतिद्वंदी।
 
यहाँ एक है सिर्फ दूसरे का प्रतिद्वंदी।
 
 
सब लोगों ने अभिनय करना सीख लिया है।
 
सब लोगों ने अभिनय करना सीख लिया है।
 
+
प्राप्त कुश्लता और दक्षता ऐसी कर ली कुछ लोगों ने,
प्राप्‍त कुश्‍लता और दक्षता ऐसी कर ली कुछ लोगों ने,
+
 
+
 
अदा भूमिकाएँ कर सकते कई साथ ही,
 
अदा भूमिकाएँ कर सकते कई साथ ही,
 
 
भाँति-भाँति के लगा मुखौटे।
 
भाँति-भाँति के लगा मुखौटे।
 
+
अभी शाक्त हैं, अभी शैव हैं, अभी वैष्णव;
अभी शाक्‍त हैं, अभी शैव हैं, अभी वैष्‍णव;
+
परम प्रवीण-धुरीण कला में नेता, व्यापारी, अधिकारी।
 
+
ख़सम मसरकर सत्ती होनेवाली नारी,
परम प्रवीण-धुरीण कला में नेता, व्‍यापारी, अधिकारी।
+
 
+
ख़सम मसरकर सत्‍ती होनेवाली नारी,
+
 
+
 
कथा रही हो,
 
कथा रही हो,
 
 
महानगर की नारी मातम में शामिल हो,
 
महानगर की नारी मातम में शामिल हो,
 
+
श्वेत वसन में,
::श्‍वेत वसन में,
+
 
+
 
अश्रु बहाकर, हाय, हाय कर
 
अश्रु बहाकर, हाय, हाय कर
 
+
पल में साड़ी बदल ब्याह में शिरकत करती,-रँगी- चुँगी-
पल में साड़ी बदल ब्‍याह में शिरकत करती,-रँगी- चुँगी-
+
खिल-खिल हँसती।
 
+
::::खिल-क्षिल हँसती।
+
 
+
 
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आडंबर, उपचार, दिखावा
 
आडंबर, उपचार, दिखावा
 
 
ऊपर-ऊपर होता रहता,
 
ऊपर-ऊपर होता रहता,
  
 
नीचे-नीचे चाकू लता, कैंची चलती,
 
नीचे-नीचे चाकू लता, कैंची चलती,
 
+
और किसी का पत्ता कटता,
::और किसी का पत्‍ता कटता,
+
और किसी की पूँजी कटती।
 
+
::और किसी की पूँजी कटती।
+
 
+
 
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महानगर में मानवता छोड़नी नहीं पड़ती
 
महानगर में मानवता छोड़नी नहीं पड़ती
 
 
ख़ुद-ब-ख़ुद छूट जाती है।
 
ख़ुद-ब-ख़ुद छूट जाती है।
 
 
धनी वर्ग कर हृदय टटोलो,
 
धनी वर्ग कर हृदय टटोलो,
 
 
उसकी छाती सोने-चाँदी-सी ठस-ठंडी,
 
उसकी छाती सोने-चाँदी-सी ठस-ठंडी,
 
 
किसी बात से,
 
किसी बात से,
 
 
किसी घात से,
 
किसी घात से,
 
+
क्यों पिघलेगी।
::क्‍यों पिघलेगी।
+
 
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पंच प्राण की जगह
 
पंच प्राण की जगह
 
+
पाँच सिक्के अटके हों
पाँच सिक्‍के अटके हों
+
 
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तो इस पर मत अचरज करना
 
तो इस पर मत अचरज करना
 
+
मध्यवर्ग को जीने का संघर्ष
मध्‍यवर्ग को जीने का संघर्ष
+
व्यस्त इतना रखता है,
 
+
लस्त-पस्त इतना कर देता,
व्‍यस्‍त इतना रखता है,
+
 
+
लस्‍त-पस्‍त इतना कर देता,
+
 
+
 
दम रहता नहीं दूसरे को देखे भी;
 
दम रहता नहीं दूसरे को देखे भी;
 +
स्वार्थ् नहीं, कमजोरी उसकी
 +
लाचारी है।
 +
औ' दरिद्रता निम्नवर्ग की।
 +
पशुता के अति निम्न धरातल से
 +
उसको जकड़े रहती है,
 +
कुछ उसके अतिरिक्त कहीं, वह नहीं जानता।
  
स्‍वार्थ्‍ नहीं, कमजोरी उसकी
+
मानवता है दान, दया, दम।
 +
यहाँ नहीं कोई देता है;
 +
दिया कहीं पाने का अब विश्वास मर गया।
 +
जो देता है, यहीं, कहीं उससे ज़्यादा
 +
पाने-लेने को।
 +
दया हृदय की दुर्बलता द्योतित करती है,
  
::लाचारी है।
+
लोग यहाँ के उसे छिपाते,
 +
प्रकट हुई तो उससे लाभ उठानेवाले
 +
घेरे, पीछे लगे रहेंगे।
 +
दमन दूसरा जहाँ किसी का करने को हर समय,
 +
आत्मदमन किसलिए करेगा?
 +
अगर करेगा तो वह औरों को
 +
मुँह माँगा अवसर देगा।
 +
आत्म-प्रस्फुटन, आत्म प्रकाशन
 +
और आत्म-विज्ञापन में सब लोग लगे हैं।
 +
गुण-योग्यता उपेक्षित रखकर
 +
यहाँ दबा दी जाती असमय,
 +
उछल-कूद करनेवाले
 +
लोगों की नज़रों में तो रहते।
 +
लोग याद तो उनको करते,
 +
चाहे उनके अवगुण कहते।
 +
दम के बूदम अनदेखे, अनसुने, अचर्चित,
 +
अविदित मरते।
 +
छूट गई मानवता जिनकी-किसी तरह भी-
 +
उनको जैसे बड़ी व्याधि से मुक्ति मिल गई,
 +
उन्हें जगत-गति नहीं व्यापती;
 +
बड़े भले वे!
  
औ' दरिद्रता निम्‍नवर्ग की।
+
किन्तु अभागे कुछ ऐसे हैं,
 +
महानगर में आ तो पड़े
 +
मगर मानवता अपनी छोड़ नहीं पाए हैं।
 +
वे अपना अपनत्व मिटा दें
 +
तो क्या उनके पास बचेगा?
 +
तो क्या वह खुद रह जाएँगा?
 +
वे अपने को नबी समझते
 +
महानगर में अजनबियों से घूमा करते-
 +
वे कुंठित, संत्रस्त, विखंडित, पस्त,
 +
निराश, हताश, परास्त, पिटे, अलगाए,
 +
अपने घर में निर्वासित-से,
 +
ऊबे-ऊबे,
 +
अंध गुहा में डुबे-डुबे-
 +
कलाकार, साहित्यकार, कवि-
 +
असंगठित, एकाकी, केंद्र वृत्त के अपने।
 +
कभी-कभी वे अपने स्वत्व जनाने को,
 +
प्रक्षिप्त स्वयं को करने को
 +
कुछ हाथ-पाँव माराकरते हैं,
 +
पर प्रयत्न सब उनका
 +
तपते, बड़े तवे पर
 +
पड़ी बूँद-सा
 +
छन्न-छन्न करते रह जाता,
 +
महानगर के महानाद केनक्क़ारों में
 +
तूती बनकर-
 +
प्रतिध्वनियाँ चाहे छोटे कस्बों से आएँ।
  
पशुता के अति निम्‍न धरातल से
+
शेष
 
+
महानगर के महायंत्र के
उसको जकड़े रहती है,
+
उपकरणों, कल, कीलों, काँटों, पहियों में
 
+
परिवर्तित होकर-जीवित जड़ से-
कुछ उसके अतिरिक्‍त कहीं, वह नहीं जानता।
+
चलते-फिरते, हिलते-डुलते
 +
करूँ-क्या करूँ-क्या न करूँ-
 +
क्या करूँ-करूँ-स्वर करते रहते।
  
 +
मैं जब पहले-पहल गाँव-
 +
नंग, गंग, बौन, असलाए-
 +
महानगर के अंदर पहुँचा-
 +
शोर शरर के साथ
 +
धुआँ-धक्कड़ बिखराता,
 +
भीड़-भाड़-भब्भड़ को चारों तरफ़
 +
रेलता और ठेलता और पेलता औ' ढकेलता
 +
अथक, अनवरत, अविरत गति से-
 +
तो मुझको यह लगा
 +
कि लाखों पुर्जोंवाली
 +
एक विराट मशी
 +
अपरिमित शक्ति-मत्त इंजन के बल पर
 +
बड़े झपाटे से चलती, चलती ही जाती,
 +
जैसे कभी न थमनेवाली;
 +
और खड़ा मैं उसके इतने निकट
 +
कि ख़तरे की सीमा में पहुँच गया हूँ,
 +
बाल-बाल ही बचा हुआ हूँ,
 +
फिर भी मुझको जैसे जबरन
 +
खींच रही वह,
 +
पलक झपकते ले लपेट में
 +
कुचल-पुचल कर हड्डी-पसली
 +
टुकड़े-टुकड़े
 +
रेशे-रेशे कर डालेगी।
 +
पत्र लिखा बाबा को मैंने-
 +
महानगर यह
 +
एक महादानव है,
 +
जबड़े फाड़े खाने दौड़ रहा है,
 +
औ' उससे बचने को उसके
 +
जबड़े की ही ओर जैसे भगा जाता हूँ।
  
शेष भाग शीघ्र ही टंकित कर दिया जाएगा।
+
बाबा थे अनुभवी, पकड़ के सही;
 +
पत्र का उत्तर आया,
 +
जिसने धीरज मुझे बँधाया,
 +
महानगर में रहने का गुर
 +
बाबा ने था मुझे बताया-
 +
महानगर की महानता की ओर न देखो,
 +
नगर की सड़क,
 +
सड़क की गली,
 +
गली का फ्लैट,
 +
फ्लैट का नंबर अपना बस पहचानो।
 +
रोटी-रोज़ी की जो सीधी राह,
 +
उसी पर आओ-जागो;
 +
गो उस
 +
पर भी थोड़ी मुश्किल तो होगी ही-
 +
तब यह दानव तुम्हें नहीं खाने दौड़ेगा,
 +
तुम्हीं मजे में इसको खाओ।
 +
औ' बरसो के बाद मुझे यह ज्ञान हुआ है,
 +
यह गुर सारे नागरिकों का बुझा-जाना,
 +
महानगर कुछ और नहीं है,
 +
महानगर के नागरिकों का केवल खाना।
 +
समझ रहा हर एक शेष को है वह खाता,
 +
और अंत में पचा हुआ
 +
अपने को पाता।
 +
</poem>

21:57, 28 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

महानगर यह
महाराक्षस की आँतों-सा
फैला-छिछड़ा
दूर-दूर तक, दसों दिशा में,
ऐंड़ा-बैंड़ा, उलझा-पुलझा;
पथों, मार्गों, सड़कों, गलियों,
उप-गलियों, कोलियों, कूचों की भूल-भुलैया,
जिनमें, जिन पर मवेशियों से लेकर
लेमूशीनों तक की-
सब प्रकार तक की- सवारियों की हरकत, भगदड़।
रेंक गधों की, घोड़ों की हिनहिनी,
टुनटुनी सायकिलों की,
हॉर्न ट्रकों, लॉरियों, बसों की,
पों-कर-पों मोटर कारों की
इंसानों के शोर-शड़प्पे, हो-हल्ले से
होड़ लगाती।
झुग्गी-झोड़ियों, घर फ्लैटों,
बँगलों-आकाशी महलों, दूकान, दरीबों,
कचहरियों, दरबार, दफ़्तरों,
और कोटलों और होटलों में
जीवन के सौ जंजालों,
लेन-देन, छीनाझपटी, चालों-काटों,
बहसों, हिदायतों, शिकायतों,
सरकारी कारगुजा़री, भ्रष्टाचारी,
टंकन-यंत्रों, शासन तंत्रों,
तफ़रीहों, छूरी-काँटों, प्याली-प्लेटों,
बोतलों-गिलासों की गहमागहमी
भीषण गहमागहमी
भीषण हलचल है, चहल-पहल है।

दाँते ने
जो नरक किया था कल्पित
उस पर लिखा हुया था-
'इसके अंदर आने वालों,
अपनी सब आशाएँ छोड़ों।'
महानगर के महा द्वार पर
लिखा हुया है-
'इसके अंदर आने वालों,
सबसे पहले
अपनी मानवता छोड़ो।
बाद किसी संस्था, समाज दल, संघ, मंच से
कारबार, अख़बार, मलखा़ने, दफ़्तर से
नाता जोड़ों;
और नागरिक सफल अगर बनना चाहो,
अपनत्व मिटाओ;
अभिनय करना सीखो

औ' भूमिका जहाँ, जब, जैसी बैठे,
उसे निभाओ।'
महानगर यह महामंच है;
असफल होने यहाँ नहीं कोई आया है;
सिद्धि, समृद्धि, सफलता का हरेक अभिलाषी,
ईर्ष्या-प्रेरित अपने सहकर्मी, सहयोगी, समकक्षी से;
यहाँ न रिश्ता,
यहाँ न नाता,
औ' न मिताई,
भाई-बंदी,
यहाँ एक है सिर्फ दूसरे का प्रतिद्वंदी।
सब लोगों ने अभिनय करना सीख लिया है।
प्राप्त कुश्लता और दक्षता ऐसी कर ली कुछ लोगों ने,
अदा भूमिकाएँ कर सकते कई साथ ही,
भाँति-भाँति के लगा मुखौटे।
अभी शाक्त हैं, अभी शैव हैं, अभी वैष्णव;
परम प्रवीण-धुरीण कला में नेता, व्यापारी, अधिकारी।
ख़सम मसरकर सत्ती होनेवाली नारी,
कथा रही हो,
महानगर की नारी मातम में शामिल हो,
श्वेत वसन में,
अश्रु बहाकर, हाय, हाय कर
पल में साड़ी बदल ब्याह में शिरकत करती,-रँगी- चुँगी-
खिल-खिल हँसती।
आडंबर, उपचार, दिखावा
ऊपर-ऊपर होता रहता,

नीचे-नीचे चाकू लता, कैंची चलती,
और किसी का पत्ता कटता,
और किसी की पूँजी कटती।
महानगर में मानवता छोड़नी नहीं पड़ती
ख़ुद-ब-ख़ुद छूट जाती है।
धनी वर्ग कर हृदय टटोलो,
उसकी छाती सोने-चाँदी-सी ठस-ठंडी,
किसी बात से,
किसी घात से,
क्यों पिघलेगी।
पंच प्राण की जगह
पाँच सिक्के अटके हों
तो इस पर मत अचरज करना
मध्यवर्ग को जीने का संघर्ष
व्यस्त इतना रखता है,
लस्त-पस्त इतना कर देता,
दम रहता नहीं दूसरे को देखे भी;
स्वार्थ् नहीं, कमजोरी उसकी
लाचारी है।
औ' दरिद्रता निम्नवर्ग की।
पशुता के अति निम्न धरातल से
उसको जकड़े रहती है,
कुछ उसके अतिरिक्त कहीं, वह नहीं जानता।

मानवता है दान, दया, दम।
यहाँ नहीं कोई देता है;
दिया कहीं पाने का अब विश्वास मर गया।
जो देता है, यहीं, कहीं उससे ज़्यादा
पाने-लेने को।
दया हृदय की दुर्बलता द्योतित करती है,

लोग यहाँ के उसे छिपाते,
प्रकट हुई तो उससे लाभ उठानेवाले
घेरे, पीछे लगे रहेंगे।
दमन दूसरा जहाँ किसी का करने को हर समय,
आत्मदमन किसलिए करेगा?
अगर करेगा तो वह औरों को
मुँह माँगा अवसर देगा।
आत्म-प्रस्फुटन, आत्म प्रकाशन
और आत्म-विज्ञापन में सब लोग लगे हैं।
गुण-योग्यता उपेक्षित रखकर
यहाँ दबा दी जाती असमय,
उछल-कूद करनेवाले
लोगों की नज़रों में तो रहते।
लोग याद तो उनको करते,
चाहे उनके अवगुण कहते।
दम के बूदम अनदेखे, अनसुने, अचर्चित,
अविदित मरते।
छूट गई मानवता जिनकी-किसी तरह भी-
उनको जैसे बड़ी व्याधि से मुक्ति मिल गई,
उन्हें जगत-गति नहीं व्यापती;
बड़े भले वे!

किन्तु अभागे कुछ ऐसे हैं,
महानगर में आ तो पड़े
मगर मानवता अपनी छोड़ नहीं पाए हैं।
वे अपना अपनत्व मिटा दें
तो क्या उनके पास बचेगा?
तो क्या वह खुद रह जाएँगा?
वे अपने को नबी समझते
महानगर में अजनबियों से घूमा करते-
वे कुंठित, संत्रस्त, विखंडित, पस्त,
निराश, हताश, परास्त, पिटे, अलगाए,
अपने घर में निर्वासित-से,
ऊबे-ऊबे,
अंध गुहा में डुबे-डुबे-
कलाकार, साहित्यकार, कवि-
असंगठित, एकाकी, केंद्र वृत्त के अपने।
कभी-कभी वे अपने स्वत्व जनाने को,
प्रक्षिप्त स्वयं को करने को
कुछ हाथ-पाँव माराकरते हैं,
पर प्रयत्न सब उनका
तपते, बड़े तवे पर
पड़ी बूँद-सा
छन्न-छन्न करते रह जाता,
महानगर के महानाद केनक्क़ारों में
तूती बनकर-
प्रतिध्वनियाँ चाहे छोटे कस्बों से आएँ।

शेष
महानगर के महायंत्र के
उपकरणों, कल, कीलों, काँटों, पहियों में
परिवर्तित होकर-जीवित जड़ से-
चलते-फिरते, हिलते-डुलते
करूँ-क्या करूँ-क्या न करूँ-
क्या करूँ-करूँ-स्वर करते रहते।

मैं जब पहले-पहल गाँव-
नंग, गंग, बौन, असलाए-
महानगर के अंदर पहुँचा-
शोर शरर के साथ
धुआँ-धक्कड़ बिखराता,
भीड़-भाड़-भब्भड़ को चारों तरफ़
रेलता और ठेलता और पेलता औ' ढकेलता
अथक, अनवरत, अविरत गति से-
तो मुझको यह लगा
कि लाखों पुर्जोंवाली
एक विराट मशी
अपरिमित शक्ति-मत्त इंजन के बल पर
बड़े झपाटे से चलती, चलती ही जाती,
जैसे कभी न थमनेवाली;
और खड़ा मैं उसके इतने निकट
कि ख़तरे की सीमा में पहुँच गया हूँ,
बाल-बाल ही बचा हुआ हूँ,
फिर भी मुझको जैसे जबरन
खींच रही वह,
पलक झपकते ले लपेट में
कुचल-पुचल कर हड्डी-पसली
टुकड़े-टुकड़े
रेशे-रेशे कर डालेगी।
पत्र लिखा बाबा को मैंने-
महानगर यह
एक महादानव है,
जबड़े फाड़े खाने दौड़ रहा है,
औ' उससे बचने को उसके
जबड़े की ही ओर जैसे भगा जाता हूँ।

बाबा थे अनुभवी, पकड़ के सही;
पत्र का उत्तर आया,
जिसने धीरज मुझे बँधाया,
महानगर में रहने का गुर
बाबा ने था मुझे बताया-
महानगर की महानता की ओर न देखो,
नगर की सड़क,
सड़क की गली,
गली का फ्लैट,
फ्लैट का नंबर अपना बस पहचानो।
रोटी-रोज़ी की जो सीधी राह,
उसी पर आओ-जागो;
गो उस
पर भी थोड़ी मुश्किल तो होगी ही-
तब यह दानव तुम्हें नहीं खाने दौड़ेगा,
तुम्हीं मजे में इसको खाओ।
औ' बरसो के बाद मुझे यह ज्ञान हुआ है,
यह गुर सारे नागरिकों का बुझा-जाना,
महानगर कुछ और नहीं है,
महानगर के नागरिकों का केवल खाना।
समझ रहा हर एक शेष को है वह खाता,
और अंत में पचा हुआ
अपने को पाता।