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ढह गया दिन / अंकित काव्यांश

14 bytes removed, 02:10, 3 अगस्त 2020
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ढ़ल गयी ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन
भूल जाती है सुबह,
सुबह निकलकर
और दिन दिनभर पिघलता याद में।
चांदनी चान्दनी का महल
हिलता दीखता है
चाँद चांद रोता इस कदर क़दर बुनियाद में।
कल मिलेंगे आज खोकर कह गया दिन।
ढ़ल गयी ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन।
रोज रोज़ अनगिन स्वप्न,
अनगिन रास्तों पर,
कौन किसका कौन किसका क्या पता?
हाँ , मगर दिन के लिए,
दिन के सहारे,
रात दिन होते दिखे हैं लापता।
एक मंजिल मंज़िल की तरह ही रह गया दिन।ढ़ल गयी ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन।
दूर वह जो रेत का तट
किन्तु घुलना एक दिन कह बह गया दिन।
ढ़ल गयी ढल गई फिर शाम देखो ढ़ह ढह गया दिन।
</poem>
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