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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=रामधारी सिंह "दिनकर"]][[Category:कविताएँ]]|अनुवादक=[[Category:|संग्रह=समर निंद्य है / रामधारी सिंह "दिनकर"]]}}{{KKCatKavita}}<poem>न्याय शान्ति का प्रथम न्यास हैजब तक न्याय न आता,जैसा भी हो महल शान्ति कासुदृढ़ नहीं रह पाता।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~कृत्रिम शान्ति सशंक आपअपने से ही डरती है,खड्ग छोड़ विश्वास किसी काकभी नहीं करती है|
'''मुखपृष्ठ: [[समर निंद्य और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्थामें सुख-भोग सुलभ है / रामधारी सिंह "दिनकर"]]''',उनके लिये शान्ति ही जीवन -सार, सिद्धि दुर्लभ है।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है<br>जब तक न्याय न आता,<br>जैसा भी हो महल शान्ति का<br>सुदृढ़ नहीं रह पाता।<br><br> कृत्रिम शान्ति सशंक आप<br>अपने से ही डरती है,<br>खड्ग छोड़ विश्वास किसी का<br>कभी नहीं करती है|<br><br> और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था<br>में सुख-भोग सुलभ है,<br>उनके लिये शान्ति ही जीवन -<br>सार, सिद्धि दुर्लभ है।<br><br> पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,<br>शोणित पी कर तन का,<br>जीती है यह शान्ति, दाह<br>समझो कुछ उनके मन का।<br><br> स्वत्व माँगने से न मिले,<br>संघात पाप हो जायें,<br> बोलो धर्मराज, शोषित वे<br>जियें या कि मिट जायें?<br><br> न्यायोचित अधिकार माँगने<br>से न मिले, तो लड़ के,<br>तेजस्वी छीनते समर को<br>जीत, या कि खुद मर के।<br><br> किसने कहा पाप है समुचित<br>स्वत्व-प्राप्ति-हित लड़ना?<br>उठा न्याय का खड्ग समर में<br>अभय मारना-मरना?<br><br> क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल<br>की दे वृथा दुहाई,<br>धर्मराज व्यंजित करते तुम<br>मानव की कदराई।<br><br> हिंसा का आघात तपस्या ने<br>कब, कहाँ सहा है?<br>देवों का दल सदा दानवों<br>से हारता रहा है।<br><br> मन:शक्ति प्यारी थी तुमको<br>यदि पौरुष ज्वलन से,<br>लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?<br>फिर आये क्यों वन से?<br><br> पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह<br>जला, हुए वनवासी,<br>केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख<br>कहलायी दासी।<br><br> क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,<br>सबका लिया सहारा;<br>पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे<br>कहो, कहाँ कब हारा?<br><br/poem>
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