"खण्ड दो / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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+ | हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ? | ||
+ | हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ? | ||
− | + | यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ? | |
− | हम | + | दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें। |
+ | पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है, | ||
+ | हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है। | ||
− | + | घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, | |
− | + | लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है, | |
− | + | जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है, | |
− | + | समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है। | |
− | + | जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है, | |
− | + | या किसी लोभ के विवश मूक रहता है, | |
− | + | उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है, | |
− | + | यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है। | |
− | जो | + | चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं, |
− | + | जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं, | |
− | + | जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं, | |
− | + | या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं; | |
− | + | यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है, | |
− | + | भारत अपने घर में ही हार गया है। | |
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− | + | है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ? | |
− | + | किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ? | |
+ | जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है, | ||
+ | दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है। | ||
− | + | नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में, | |
− | + | कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में। | |
− | + | यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है, | |
− | + | पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है। | |
− | + | ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ? | |
− | + | अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो। | |
− | + | वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है, | |
− | + | जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है। | |
− | + | जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है; | |
− | + | है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं। | |
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− | + | वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है, | |
− | + | वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है। | |
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− | वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है। | + | |
− | तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है, | + | तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है, |
− | लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है। | + | लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है। |
− | असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है, | + | असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है, |
− | पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है। | + | पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है। |
− | तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में, | + | तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में, |
− | किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में। | + | किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में। |
− | बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं, | + | बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं, |
− | सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं। | + | सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं। |
− | पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ? | + | पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ? |
− | यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ? | + | यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ? |
− | तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा, | + | तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा, |
− | है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा। | + | है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा। |
− | जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा, | + | जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा, |
− | शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा। | + | शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा। |
− | हम पर अपने पापों का बोझ न डालें, | + | हम पर अपने पापों का बोझ न डालें, |
− | कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें। | + | कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें। |
− | कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से, | + | कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से, |
− | आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से, | + | आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से, |
− | सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें, | + | सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें, |
− | हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें। | + | हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें। |
− | हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो, | + | हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो, |
− | दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो। | + | दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो। |
− | हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में, | + | हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में, |
− | है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ? | + | है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ? |
− | हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे ! | + | हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे ! |
− | जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे ! | + | जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे ! |
− | जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में, | + | जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में, |
− | या आग सुलगती रही प्रजा के मन में; | + | या आग सुलगती रही प्रजा के मन में; |
− | तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को, | + | तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को, |
− | निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को, | + | निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को, |
− | रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा, | + | रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा, |
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा। | अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा। | ||
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18:55, 27 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।