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रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 2

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|रचनाकार= रामधारी सिंह "दिनकर"}}{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1|आगे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 3|संग्रहसारणी= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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{{KKCatKavita}}[[रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1|<< पिछला भाग]] poem>
अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
 
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
 
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
 वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।  
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
 
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
 
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
 
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
 
 
जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
 
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
 
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
 
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
 
 
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
 
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
 
कहता हुआ, 'तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
 
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।'
 
 
'तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
 
चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
 
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
 
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।'
 
 
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
 
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।
 
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
 
गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।
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