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रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 4

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|रचनाकार= रामधारी सिंह "दिनकर"}}{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 3|आगे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 5|संग्रहसारणी= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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'पूछो मेरी जाति , शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से'
 
रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,
 पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश, 
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।
 
 
'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,
 
क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।
 
अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,
 
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।'
 
 
कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
 
राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
 
अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।'
 
 
कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,
 
सह न सका अन्याय , सुयोधन बढ़कर आगे आया।
 बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान, 
उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।
 
 
'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
 
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
 
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
 
'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।
 
 
'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
 
अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।
 
कर्ण भले ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,
 
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।
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