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|रचनाकार=रामधारी सिंह '"दिनकर'"}}{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5|आगे=रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 7|संग्रहसारणी= रश्मिरथी / रामधारी सिंह '"दिनकर'"
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[[रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 5|{{KKCatKavita}}<< पिछला भाग]]poem>"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
चलता ना छत्र पुरखों का धर.
अपना बल-तेज जगाता है,
विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, चलता ना छत्र पुरखों का धर. अपना बल-तेज जगाता है, सम्मान जगत से पाता है. सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
"कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
कुल-गोत्र नही साधन मेरामैने हिम्मत से काम लियाअब वंश चकित भरमाया है, पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया, मैने हिम्मत से काम लियाखुद मुझे ढूँडने आया है."लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
अब वंश चकित भरमाया हैअपने प्रण से विचरूँगा क्या?रण मे कुरूपति का विजय वरण,
खुद मुझे ढूँडने आया है. लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? अपने प्रण से विचरूँगा क्या? रण मे कुरूपति का विजय वरण, या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
मैत्री की बड़ी सुखद छाया, शीतल हो जाती है काया, धिक्कार-योग्य होगा वह नर, जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है. "जिस नर की बाह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
जिस नर की बाह गही मैनेकैसे कुठार चलने दूँगा, जिस तरु की छाँह गहि मैनेजीते जी उसे बचाऊँगा,
उस पर न वार चलने दूँगाया आप स्वयं कट जाऊँगा, कैसे कुठार चलने दूँगा"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
जीते जी कब उसे बचाऊँगा, तोल सकता है धन?धरती की तो है क्या बिसात?
या आप स्वयं कट जाऊँगा, मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब उसे तोल सकता है धन? धरती की तो है क्या बिसात? आ जाय अगर बैकुंठ हाथ. उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
सिर ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.कटवा दूँ उसके लिए स्कंध पर चलता हूँ, उस दिन के लिए मचलता हूँगला,
यदि चले वज्र दुर्योधन परचाहिए मुझे क्या और भला?"सम्राट बनेंगे धर्मराज, ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.
कटवा दूँ उसके लिए गलाया पाएगा कुरूरज ताज,लड़ना भर मेरा कम रहा,
चाहिए मुझे क्या और भला? दुर्योधन का संग्राम रहा,मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है.
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
सम्राट बनेंगे धर्मराज, या पाएगा कुरूरज ताज, साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?क्या नहीं आपने भी जाना?
लड़ना भर मेरा कम रहा, दुर्योधन मुझको न आज तक पहचाना?जीवन का संग्राम रहामूल्य समझता हूँ,
मुझको न कहीं कुछ पाना हैधन को मैं धूल समझता हूँ."धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
केवल ऋण मात्र चुकाना हैसाम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. भुजबल से कर संसार विजय,
अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? तृष्णा छू भी ना सकी मन को."वैभव विलास की चाह नहीं,
क्या अपनी कोई परवाह नहीं आपने भी जाना? मुझको न आज तक पहचाना? ,बस यही चाहता हूँ केवल,
जीवन का मूल्य समझता हूँ, धन को मैं धूल समझता हूँ. धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. भुजबल से कर संसार विजय, अगणित समृद्धियों का सन्चय, दे दिया मित्र दुर्योधन को, तृष्णा छू भी ना सकी मन को. वैभव विलास की चाह नहीं, अपनी कोई परवाह नहीं, बस यही चाहता हूँ केवल, दान की देव सरिता निर्मल, करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.
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