"दर्शन / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, | मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन, | ||
− | |||
वरदान बने मेरा जीवन | वरदान बने मेरा जीवन | ||
− | |||
जो मुझको तू यों चली छोड, | जो मुझको तू यों चली छोड, | ||
− | |||
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" | तो मुझे मिले फिर यही क्रोड" | ||
− | |||
"हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, | "हे सौम्य इडा का शुचि दुलार, | ||
− | |||
हर लेगा तेरा व्यथा-भार, | हर लेगा तेरा व्यथा-भार, | ||
− | |||
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, | यह तर्कमयी तू श्रद्धामय, | ||
− | |||
तू मननशील कर कर्म अभय, | तू मननशील कर कर्म अभय, | ||
− | |||
इसका तू सब संताप निचय, | इसका तू सब संताप निचय, | ||
− | |||
हर ले, हो मानव भाग्य उदय, | हर ले, हो मानव भाग्य उदय, | ||
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सब की समरसता कर प्रचार, | सब की समरसता कर प्रचार, | ||
− | |||
मेरे सुत सुन माँ की पुकार।" | मेरे सुत सुन माँ की पुकार।" | ||
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"अति मधुर वचन विश्वास मूल, | "अति मधुर वचन विश्वास मूल, | ||
− | |||
मुझको न कभी ये जायँ भूल | मुझको न कभी ये जायँ भूल | ||
− | |||
हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल, | हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल, | ||
− | |||
बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल, | बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल, | ||
− | |||
आकर्षण घन-सा वितरे जल, | आकर्षण घन-सा वितरे जल, | ||
− | |||
निर्वासित हों संताप सकल" | निर्वासित हों संताप सकल" | ||
− | |||
कहा इडा प्रणत ले चरण धूल, | कहा इडा प्रणत ले चरण धूल, | ||
− | |||
पकडा कुमार-कर मृदुल फूल। | पकडा कुमार-कर मृदुल फूल। | ||
− | |||
वे तीनों ही क्षण एक मौन- | वे तीनों ही क्षण एक मौन- | ||
− | |||
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन | विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन | ||
− | |||
विच्छेद बाह्य, था आलिगंन- | विच्छेद बाह्य, था आलिगंन- | ||
− | |||
वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन, | वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन, | ||
− | |||
मिलते आहत होकर जलकन, | मिलते आहत होकर जलकन, | ||
− | |||
लहरों का यह परिणत जीवन, | लहरों का यह परिणत जीवन, | ||
− | |||
दो लौट चले पुर ओर मौन, | दो लौट चले पुर ओर मौन, | ||
− | |||
जब दूर हुए तब रहे दो न। | जब दूर हुए तब रहे दो न। | ||
− | |||
निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत, | निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत, | ||
− | |||
वह था असीम का चित्र कांत। | वह था असीम का चित्र कांत। | ||
− | |||
कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर, | कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर, | ||
− | |||
व्यथिता रजनी के श्रमसींकर, | व्यथिता रजनी के श्रमसींकर, | ||
− | |||
झलके कब से पर पडे न झर, | झलके कब से पर पडे न झर, | ||
− | + | गंभीर मलिन छाया भू पर, | |
− | + | ||
− | + | ||
सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत, | सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत, | ||
− | |||
केवल बिखेरता दीन ध्वांत। | केवल बिखेरता दीन ध्वांत। | ||
− | |||
शत-शत तारा मंडित अनंत, | शत-शत तारा मंडित अनंत, | ||
− | |||
कुसुमों का स्तबक खिला बसंत, | कुसुमों का स्तबक खिला बसंत, | ||
− | |||
हँसता ऊपर का विश्व मधुर, | हँसता ऊपर का विश्व मधुर, | ||
− | |||
हलके प्रकाश से पूरित उर, | हलके प्रकाश से पूरित उर, | ||
− | |||
बहती माया सरिता ऊपर, | बहती माया सरिता ऊपर, | ||
− | |||
उठती किरणों की लोल लहर, | उठती किरणों की लोल लहर, | ||
− | |||
निचले स्तर पर छाया दुरंत, | निचले स्तर पर छाया दुरंत, | ||
− | |||
आती चुपके, जाती तुरंत। | आती चुपके, जाती तुरंत। | ||
− | |||
सरिता का वह एकांत कूल, | सरिता का वह एकांत कूल, | ||
− | |||
था पवन हिंडोले रहा झूल, | था पवन हिंडोले रहा झूल, | ||
− | |||
धीरे-धीरे लहरों का दल, | धीरे-धीरे लहरों का दल, | ||
− | |||
तट से टकरा होता ओझल, | तट से टकरा होता ओझल, | ||
− | |||
छप-छप का होता शब्द विरल, | छप-छप का होता शब्द विरल, | ||
− | |||
थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल | थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल | ||
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संसृति अपने में रही भूल, | संसृति अपने में रही भूल, | ||
− | |||
वह गंध-विधुर अम्लान फूल। | वह गंध-विधुर अम्लान फूल। | ||
− | |||
तब सरस्वती-सा फेंक साँस, | तब सरस्वती-सा फेंक साँस, | ||
− | |||
श्रद्धा ने देखा आस-पास, | श्रद्धा ने देखा आस-पास, | ||
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थे चमक रहे दो फूल नयन, | थे चमक रहे दो फूल नयन, | ||
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ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन, | ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन, | ||
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वह क्या तम में करता सनसन? | वह क्या तम में करता सनसन? | ||
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धारा का ही क्या यह निस्वन | धारा का ही क्या यह निस्वन | ||
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ना, गुहा लतावृत एक पास, | ना, गुहा लतावृत एक पास, | ||
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कोई जीवित ले रहा साँस। | कोई जीवित ले रहा साँस। | ||
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वह निर्जन तट था एक चित्र, | वह निर्जन तट था एक चित्र, | ||
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कितना सुंदर, कितना पवित्र? | कितना सुंदर, कितना पवित्र? | ||
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कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर, | कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर, | ||
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फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर, | फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर, | ||
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वह लोक-अग्नि में तप गल कर, | वह लोक-अग्नि में तप गल कर, | ||
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थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर, | थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर, | ||
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मनु ने देखा कितना विचित्र | मनु ने देखा कितना विचित्र | ||
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वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र। | वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र। | ||
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बोले "रमणी तुम नहीं आह | बोले "रमणी तुम नहीं आह | ||
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जिसके मन में हो भरी चाह, | जिसके मन में हो भरी चाह, | ||
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तुमने अपना सब कुछ खोकर, | तुमने अपना सब कुछ खोकर, | ||
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वंचिते जिसे पाया रोकर, | वंचिते जिसे पाया रोकर, | ||
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मैं भगा प्राण जिनसे लेकर, | मैं भगा प्राण जिनसे लेकर, | ||
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उसको भी, उन सब को देकर, | उसको भी, उन सब को देकर, | ||
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निर्दय मन क्या न उठा कराह? | निर्दय मन क्या न उठा कराह? | ||
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अद्भुत है तब मन का प्रवाह | अद्भुत है तब मन का प्रवाह | ||
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ये श्वापद से हिंसक अधीर, | ये श्वापद से हिंसक अधीर, | ||
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कोमल शावक वह बाल वीर, | कोमल शावक वह बाल वीर, | ||
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सुनता था वह प्राणी शीतल, | सुनता था वह प्राणी शीतल, | ||
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कितना दुलार कितना निर्मल | कितना दुलार कितना निर्मल | ||
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कैसा कठोर है तव हृत्तल | कैसा कठोर है तव हृत्तल | ||
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वह इडा कर गयी फिर भी छल, | वह इडा कर गयी फिर भी छल, | ||
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तुम बनी रही हो अभी धीर, | तुम बनी रही हो अभी धीर, | ||
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छुट गया हाथ से आह तीर।" | छुट गया हाथ से आह तीर।" | ||
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"प्रिय अब तक हो इतने सशंक, | "प्रिय अब तक हो इतने सशंक, | ||
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देकर कुछ कोई नहीं रंक, | देकर कुछ कोई नहीं रंक, | ||
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यह विनियम है या परिवर्त्तन, | यह विनियम है या परिवर्त्तन, | ||
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बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन, | बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन, | ||
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अपराध तुम्हारा वह बंधन- | अपराध तुम्हारा वह बंधन- | ||
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लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन- | लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन- | ||
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निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक? | निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक? | ||
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दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।" | दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।" | ||
− | + | "तुम देवि आह कितनी उदार, | |
− | "तुम | + | |
− | + | ||
यह मातृमूर्ति है निर्विकार, | यह मातृमूर्ति है निर्विकार, | ||
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हे सर्वमंगले तुम महती, | हे सर्वमंगले तुम महती, | ||
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सबका दुख अपने पर सहती, | सबका दुख अपने पर सहती, | ||
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कल्याणमयी वाणी कहती, | कल्याणमयी वाणी कहती, | ||
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तुम क्षमा निलय में हो रहती, | तुम क्षमा निलय में हो रहती, | ||
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मैं भूला हूँ तुमको निहार- | मैं भूला हूँ तुमको निहार- | ||
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नारी सा ही, वह लघु विचार। | नारी सा ही, वह लघु विचार। | ||
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मैं इस निर्जन तट में अधीर, | मैं इस निर्जन तट में अधीर, | ||
− | + | सह भूख व्यथा तीखा समीर, | |
− | सह भूख व्यथा तीखा समीर, | + | |
− | + | ||
हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर, | हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर, | ||
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चलता ही आया हूँ बढ कर, | चलता ही आया हूँ बढ कर, | ||
− | |||
इनके विकार सा ही बन कर, | इनके विकार सा ही बन कर, | ||
− | |||
मैं शून्य बना सत्ता खोकर, | मैं शून्य बना सत्ता खोकर, | ||
− | |||
लघुता मत देखो वक्ष चीर, | लघुता मत देखो वक्ष चीर, | ||
− | |||
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।" | जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।" | ||
− | |||
− | |||
"प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात, | "प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात, | ||
− | |||
है स्मरण कराती विगत बात, | है स्मरण कराती विगत बात, | ||
− | |||
वह प्रलय शांति वह कोलाहल, | वह प्रलय शांति वह कोलाहल, | ||
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जब अर्पित कर जीवन संबल, | जब अर्पित कर जीवन संबल, | ||
− | + | मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल, | |
− | मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल, | + | |
− | + | ||
क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल? | क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल? | ||
− | |||
तब चलो जहाँ पर शांति प्रात, | तब चलो जहाँ पर शांति प्रात, | ||
− | |||
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात। | मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात। | ||
− | |||
इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक- | इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक- | ||
− | |||
मानव कर ले सब भूल ठीक, | मानव कर ले सब भूल ठीक, | ||
− | |||
यह विष जो फैला महा-विषम, | यह विष जो फैला महा-विषम, | ||
− | |||
निज कर्मोन्नति से करते सम, | निज कर्मोन्नति से करते सम, | ||
− | |||
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम, | सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम, | ||
− | |||
उनका रहस्य हो शुभ-संयम, | उनका रहस्य हो शुभ-संयम, | ||
− | |||
गिर जायेगा जो है अलीक, | गिर जायेगा जो है अलीक, | ||
− | |||
चल कर मिटती है पडी लीक।" | चल कर मिटती है पडी लीक।" | ||
− | |||
वह शून्य असत या अंधकार, | वह शून्य असत या अंधकार, | ||
− | |||
अवकाश पटल का वार पार, | अवकाश पटल का वार पार, | ||
− | |||
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन, | बाहर भीतर उन्मुक्त सघन, | ||
− | |||
था अचल महा नीला अंजन, | था अचल महा नीला अंजन, | ||
− | |||
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन, | भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन, | ||
− | |||
थे निर्निमेष मनु के लोचन, | थे निर्निमेष मनु के लोचन, | ||
− | |||
इतना अनंत था शून्य-सार, | इतना अनंत था शून्य-सार, | ||
− | |||
दीखता न जिसके परे पार। | दीखता न जिसके परे पार। | ||
+ | सत्ता का स्पंदन चला डोल, | ||
+ | आवरण पटल की ग्रंथि खोल, | ||
+ | तम जलनिधि बन मधुमंथन, | ||
+ | ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन, | ||
+ | वह रजत गौर, उज्जवल जीवन, | ||
+ | आलोक पुरुष मंगल चेतन | ||
+ | केवल प्रकाश का था कलोल, | ||
+ | मधु किरणों की थी लहर लोल। | ||
+ | बन गया तमस था अलक जाल, | ||
+ | सर्वांग ज्योतिमय था विशाल, | ||
+ | अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित, | ||
+ | थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त, | ||
+ | नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत, | ||
+ | था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित, | ||
+ | स्वर लय होकर दे रहे ताल, | ||
+ | थे लुप्त हो रहे दिशाकाल। | ||
+ | लीला का स्पंदित आह्लाद, | ||
+ | वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद, | ||
+ | आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर, | ||
+ | झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर, | ||
+ | बनते तारा, हिमकर, दिनकर | ||
+ | उड रहे धूलिकण-से भूधर, | ||
+ | संहार सृजन से युगल पाद- | ||
+ | गतिशील, अनाहत हुआ नाद। | ||
+ | बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल, | ||
+ | युग ग्रहण कर रहे तोल, | ||
+ | विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर, | ||
+ | कंपित संसृति बन रही उधर, | ||
+ | चेतन परमाणु अनंथ बिखर, | ||
+ | बनते विलीन होते क्षण भर | ||
+ | यह विश्व झुलता महा दोल, | ||
+ | परिवर्त्तन का पट रहा खोल। | ||
+ | उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश, | ||
+ | सब शाप पाप का कर विनाश- | ||
+ | नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर, | ||
+ | उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर | ||
+ | अपना स्वरूप धरती सुंदर, | ||
+ | कमनीय बना था भीषणतर, | ||
+ | हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास, | ||
+ | उल्लसित महा हिम धवल हास। | ||
+ | देखा मनु ने नर्त्तित नटेश, | ||
+ | हत चेत पुकार उठे विशेष- | ||
+ | "यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल, | ||
+ | उन चरणों तक, दे निज संबल, | ||
− | + | सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल, | |
− | + | पावन बन जाते हैं निर्मल, | |
− | + | मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश, | |
− | + | समरस, अखंड, आनंद-वेश" । | |
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22:36, 9 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन,
वरदान बने मेरा जीवन
जो मुझको तू यों चली छोड,
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड"
"हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,
हर लेगा तेरा व्यथा-भार,
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,
तू मननशील कर कर्म अभय,
इसका तू सब संताप निचय,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय,
सब की समरसता कर प्रचार,
मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"
"अति मधुर वचन विश्वास मूल,
मुझको न कभी ये जायँ भूल
हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,
बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,
आकर्षण घन-सा वितरे जल,
निर्वासित हों संताप सकल"
कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,
पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।
वे तीनों ही क्षण एक मौन-
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन
विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-
वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,
मिलते आहत होकर जलकन,
लहरों का यह परिणत जीवन,
दो लौट चले पुर ओर मौन,
जब दूर हुए तब रहे दो न।
निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,
वह था असीम का चित्र कांत।
कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,
व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,
झलके कब से पर पडे न झर,
गंभीर मलिन छाया भू पर,
सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,
केवल बिखेरता दीन ध्वांत।
शत-शत तारा मंडित अनंत,
कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,
हँसता ऊपर का विश्व मधुर,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
बहती माया सरिता ऊपर,
उठती किरणों की लोल लहर,
निचले स्तर पर छाया दुरंत,
आती चुपके, जाती तुरंत।
सरिता का वह एकांत कूल,
था पवन हिंडोले रहा झूल,
धीरे-धीरे लहरों का दल,
तट से टकरा होता ओझल,
छप-छप का होता शब्द विरल,
थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल
संसृति अपने में रही भूल,
वह गंध-विधुर अम्लान फूल।
तब सरस्वती-सा फेंक साँस,
श्रद्धा ने देखा आस-पास,
थे चमक रहे दो फूल नयन,
ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,
वह क्या तम में करता सनसन?
धारा का ही क्या यह निस्वन
ना, गुहा लतावृत एक पास,
कोई जीवित ले रहा साँस।
वह निर्जन तट था एक चित्र,
कितना सुंदर, कितना पवित्र?
कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,
वह लोक-अग्नि में तप गल कर,
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,
मनु ने देखा कितना विचित्र
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।
बोले "रमणी तुम नहीं आह
जिसके मन में हो भरी चाह,
तुमने अपना सब कुछ खोकर,
वंचिते जिसे पाया रोकर,
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,
उसको भी, उन सब को देकर,
निर्दय मन क्या न उठा कराह?
अद्भुत है तब मन का प्रवाह
ये श्वापद से हिंसक अधीर,
कोमल शावक वह बाल वीर,
सुनता था वह प्राणी शीतल,
कितना दुलार कितना निर्मल
कैसा कठोर है तव हृत्तल
वह इडा कर गयी फिर भी छल,
तुम बनी रही हो अभी धीर,
छुट गया हाथ से आह तीर।"
"प्रिय अब तक हो इतने सशंक,
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
यह विनियम है या परिवर्त्तन,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन-
निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।"
"तुम देवि आह कितनी उदार,
यह मातृमूर्ति है निर्विकार,
हे सर्वमंगले तुम महती,
सबका दुख अपने पर सहती,
कल्याणमयी वाणी कहती,
तुम क्षमा निलय में हो रहती,
मैं भूला हूँ तुमको निहार-
नारी सा ही, वह लघु विचार।
मैं इस निर्जन तट में अधीर,
सह भूख व्यथा तीखा समीर,
हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,
चलता ही आया हूँ बढ कर,
इनके विकार सा ही बन कर,
मैं शून्य बना सत्ता खोकर,
लघुता मत देखो वक्ष चीर,
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"
"प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,
है स्मरण कराती विगत बात,
वह प्रलय शांति वह कोलाहल,
जब अर्पित कर जीवन संबल,
मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,
क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?
तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।
इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-
मानव कर ले सब भूल ठीक,
यह विष जो फैला महा-विषम,
निज कर्मोन्नति से करते सम,
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,
उनका रहस्य हो शुभ-संयम,
गिर जायेगा जो है अलीक,
चल कर मिटती है पडी लीक।"
वह शून्य असत या अंधकार,
अवकाश पटल का वार पार,
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,
था अचल महा नीला अंजन,
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,
थे निर्निमेष मनु के लोचन,
इतना अनंत था शून्य-सार,
दीखता न जिसके परे पार।
सत्ता का स्पंदन चला डोल,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
तम जलनिधि बन मधुमंथन,
ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,
आलोक पुरुष मंगल चेतन
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर लोल।
बन गया तमस था अलक जाल,
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,
थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,
आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,
झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,
बनते तारा, हिमकर, दिनकर
उड रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद-
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
युग ग्रहण कर रहे तोल,
विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,
कंपित संसृति बन रही उधर,
चेतन परमाणु अनंथ बिखर,
बनते विलीन होते क्षण भर
यह विश्व झुलता महा दोल,
परिवर्त्तन का पट रहा खोल।
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
सब शाप पाप का कर विनाश-
नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
कमनीय बना था भीषणतर,
हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,
उल्लसित महा हिम धवल हास।
देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,
हत चेत पुकार उठे विशेष-
"यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,
उन चरणों तक, दे निज संबल,
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,
पावन बन जाते हैं निर्मल,
मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,
समरस, अखंड, आनंद-वेश" ।