{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कबीर}}{{KKPageNavigation|आगे=कबीर दोहावली / पृष्ठ २ |सारणी=दोहावली / कबीर }}{{KKCatDoha}}{{KKVID|v=OAD4g1wrnF4}}<poem>दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे में करे न कोय । <BR/>जो सुख मे में सुमरिन करे, दुख कहे काहे को होय ॥ 1 ॥ <BR/><BR/>
तिनका कबहुँ ना न निंदिये, जो पाँव तले पाँयन तर होय । <BR/>कबहुँ उड़ आँखो पड़ेआँखिन परे, पीर घानेरी घनेरी होय ॥ 2 ॥ <BR/><BR/>
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । <BR/>कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥ <BR/><BR/>
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । <BR/>बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥ <BR/><BR/>
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । <BR/>मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख । <BR/>माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥ <BR/><BR/>
सुख मे में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद । <BR/>कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥ <BR/><BR/>
साईं इतना दीजिये, जा मे में कुटुम समाय । <BR/>मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥ <BR/><BR/>
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । <BR/>पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥ <BR/><BR/>
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । <BR/>मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । <BR/>जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥ <BR/><BR/>
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । <BR/>माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । <BR/>हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥ <BR/><BR/>
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । <BR/>एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । <BR/>जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥ <BR/><BR/>
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । <BR/>तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥ <BR/><BR/>
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । <BR/>आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥ <BR/><BR/>
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । <BR/>एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥ <BR/><BR/>
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । <BR/>हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥ <BR/><BR/>
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग । <BR/>और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥ <BR/><BR/>
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल । <BR/>तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥ <BR/><BR/>
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । <BR/> तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥ <BR/><BR/> आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । <BR/>एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥ <BR/><BR/>
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । <BR/>पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥ <BR/><BR/>
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । <BR/>माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । <BR/>कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥ <BR/><BR/>
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । <BR/> भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥ <BR/><BR/>
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान । <BR/>सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥ <BR/><BR/>
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह । <BR/>साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥ <BR/><BR/>
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच । <BR/>हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥ <BR/><BR/>
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय । <BR/> बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥ <BR/><BR/>
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर । <BR/>अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥ <BR/><BR/>
दस द्वारे का पिंजरा, तामे तामें पंछी का कौन । <BR/>रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥ <BR/><BR/>
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय । <BR/>औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥ <BR/><BR/>
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । <BR/>बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥ <BR/><BR/>
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । <BR/>साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥ <BR/><BR/>
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । <BR/>यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥ <BR/><BR/>
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । <BR/>मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥ <BR/><BR/>
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । <BR/>यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥ <BR/><BR/>
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ । <BR/>मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥ <BR/><BR/>
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । <BR/>नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥ <BR/><BR/>
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । <BR/>चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । <BR/>ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥ <BR/><BR/>
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । <BR/>पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥ <BR/><BR/>बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । <BR/>एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥ <BR/><BR/>
हर चाले तो मानवबैध मुआ रोगी मुआ, बेहद चले सो साध मुआ सकल संसार । <BR/>हद बेहद दोनों तजेएक कबीरा ना मुआ, ताको भता अगाध जेहि के राम अधार ॥ 46 45 ॥ <BR/><BR/>
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध । <BR/>रहे कबीर पाखण्ड सबहद बेहद दोनों तजे, झूठे सदा निराश ताको भता अगाध ॥ 47 46 ॥ <BR/><BR/>
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस । <BR/>वाके संग न लागियेरहे कबीर पाखण्ड सब, खाले वटिया काँच झूठे सदा निराश ॥ 48 47 ॥ <BR/><BR/>
तीरथ गये ते एक फलजाके जिव्या बन्धन नहीं, सन्त मिले फल चार ह्र्दय में नहीं साँच । <BR/>सत्गुरु मिले अनेक फलवाके संग न लागिये, कहें कबीर विचार खाले वटिया काँच ॥ 49 48 ॥ <BR/><BR/>
सुमरण से मन लाइएतीरथ गये ते एक फल, जैसे पानी बिन मीन सन्त मिले फल चार । <BR/>प्राण तजे बिन बिछड़ेसत्गुरु मिले अनेक फल, सन्त कहें कबीर कह दीन विचार ॥ 50 49 ॥ <BR/><BR/>
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥ समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय । <BR/>
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय । <BR/>जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥ <BR/><BR/> कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥ वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल । बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥ कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥ कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥ जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥
कहना सो कह दियासाधु ऐसा चाहिए, अब कुछ कहा न जाय जैसा सूप सुभाय । <BR/>एक रहा दूजा गयासार-सार को गहि रहे, दरिया लहर समाय थोथ देइ उड़ाय ॥ 53 58 ॥ <BR/><BR/>
वस्तु है ग्राहक नहींलागी लगन छूटे नाहिं, वस्तु सागर अनमोल जीभ चोंच जरि जाय । <BR/>बिना करम का मानवमीठा कहा अंगार में, फिरैं डांवाडोल जाहि चकोर चबाय ॥ 54 59 ॥ <BR/><BR/>
कली खोटा जग आंधराभक्ति गेंद चौगान की, शब्द न माने कोय भावे कोई ले जाय । <BR/>चाहे कहँ सत आइनाकह कबीर कुछ भेद नाहिं, जो जग बैरी होय कहां रंक कहां राय ॥ 55 60 ॥ <BR/><BR/>
कामीघट का परदा खोलकर, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय सन्मुख दे दीदार । <BR/>भक्ति करे कोइ सूरमाबाल सनेही सांइयाँ, जाति वरन कुल खोय आवा अन्त का यार ॥ 56 61 ॥ <BR/><BR/>
जागन में सोवन करेअन्तर्यामी एक तुम, साधन में लौ लाय आत्मा के आधार । <BR/>सूरत डोर लागी रहेजो तुम छोड़ो हाथ तो, तार टूट नाहिं जाय कौन उतारे पार ॥ 57 62 ॥ <BR/><BR/>
साधु ऐसा चहिए मैं अपराधी जन्म का,जैसा सूप सुभाय नख-सिख भरा विकार । <BR/>सार-सार को गहि रहेतुम दाता दु:ख भंजना, थोथ देइ उड़ाय मेंरी करो सम्हार ॥ 58 63 ॥ <BR/><BR/>
लगी लग्न छूटे नाहिंप्रेम न बाड़ी ऊपजै, जीभ चोंच जरि जाय प्रेम न हाट बिकाय । <BR/>मीठा कहा अंगार मेंराजा-परजा जेहि रुचें, जाहि चकोर चबाय शीश देई ले जाय ॥ 59 64 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति गेंद चौगान कीप्रेम प्याला जो पिये, भावे कोई ले जाय शीश दक्षिणा देय । <BR/>कह कबीर कुछ भेद नाहिंलोभी शीश न दे सके, कहां रंक कहां राय नाम प्रेम का लेय ॥ 60 65 ॥ <BR/><BR/>
घट का परदा खोलकरसुमिरन में मन लाइए, सन्मुख दे दीदार जैसे नाद कुरंग । <BR/>बाल सनेही सांइयाँकहैं कबीर बिसरे नहीं, आवा अन्त का यार प्रान तजे तेहि संग ॥ 61 66 ॥ <BR/><BR/>
अन्तर्यामी एक तुमसुमरित सुरत जगाय कर, आत्मा मुख के आधार कछु न बोल । <BR/>जो तुम छोड़ो हाथ तोबाहर का पट बन्द कर, कौन उतारे पार अन्दर का पट खोल ॥ 62 67 ॥ <BR/><BR/>
मैं अपराधी जन्म काछीर रूप सतनाम है, नख-सिख भरा विकार नीर रूप व्यवहार । <BR/>तुम दाता दु:ख भंजनाहंस रूप कोई साधु है, मेरी करो सम्हार सत का छाननहार ॥ 63 68 ॥ <BR/><BR/>
प्रेम न बड़ी ऊपजैज्यों तिल मांही तेल है, प्रेम न हाट बिकाय ज्यों चकमक में आग । <BR/>राजा-प्रजा जोहि रुचेंतेरा सांई तुझमें, शीश देई ले जाय बस जाग सके तो जाग ॥ 64 69 ॥ <BR/><BR/>
प्रेम प्याला जो पियेजा करण जग ढ़ूँढ़िया, शीश दक्षिणा देय सो तो घट ही मांहि । <BR/>लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम परदा दिया भरम का लेय , ताते सूझे नाहिं ॥ 65 70 ॥ <BR/><BR/>
सुमिरन में मन लाइएजबही नाम हिरदे घरा, जैसे नाद कुरंग भया पाप का नाश । <BR/>कहैं कबीर बिसरे नहींमानो चिंगरी आग की, प्रान तजे तेहि संग परी पुरानी घास ॥ 66 71 ॥ <BR/><BR/>
सुमरित सुरत जगाय करनहीं शीतल है चन्द्रमा, मुख के कछु न बोल हिंम नहीं शीतल होय । <BR/>बाहर का पट बन्द करकबीरा शीतल सन्त जन, अन्दर का पट खोल नाम सनेही सोय ॥ 67 72 ॥ <BR/><BR/>
छीर रूप सतनाम हैआहार करे मन भावता, नीर रूप व्यवहार इंदी किए स्वाद । <BR/>हंस रूप कोई साधु हैनाक तलक पूरन भरे, सत तो का छाननहार कहिए प्रसाद ॥ 68 73 ॥ <BR/><BR/>
ज्यों तिल मांही तेल हैजब लग नाता जगत का, ज्यों चकमक में आग तब लग भक्ति न होय । <BR/>तेरा सांई तुझमेंनाता तोड़े हरि भजे, बस जाग सके तो जाग भगत कहावें सोय ॥ 69 74 ॥ <BR/><BR/>
जा करण जग ढ़ूँढ़ियाजल ज्यों प्यारा माहरी, सो तो घट ही मांहि लोभी प्यारा दाम । <BR/>परदा दिया भरम कामाता प्यारा बारका, ताते सूझे नाहिं भगति प्यारा नाम ॥ 70 75 ॥ <BR/><BR/>
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप दिल का नाश मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । <BR/>मानो चिंगरी आग कीकह कबीर आसमान फटा, परी पुरानी घास क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 71 76 ॥ <BR/><BR/>
नहीं शीतल है चन्द्रमाबानी से पह्चानिये, हिंम नहीं शीतल होय साम चोर की घात । <BR/>कबीरा शीतल सन्त जनअन्दर की करनी से सब, नाम सनेही सोय निकले मुँह कई बात ॥ 72 77 ॥ <BR/><BR/>
आहार करे मन भावताजब लगि भगति सकाम है, इंदी किए स्वाद तब लग निष्फल सेव । <BR/>नाक तलक पूरन भरेकह कबीर वह क्यों मिले, तो का कहिए प्रसाद निष्कामी तज देव ॥ 73 78 ॥ <BR/><BR/>
जब लग नाता जगत काफूटी आँख विवेक की, तब लग भक्ति न होय लखे ना सन्त असन्त । <BR/>नाता तोड़े हरि भजेजाके संग दस-बीस हैं, भगत कहावें सोय ताको नाम महन्त ॥ 74 79 ॥ <BR/><BR/>
जल ज्यों प्यारा माहरीदाया भाव ह्र्दय नहीं, लोभी प्यारा दाम ज्ञान थके बेहद । <BR/>माता प्यारा बारकाते नर नरक ही जायेंगे, भगति प्यारा नाम सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 75 80 ॥ <BR/><BR/>
दिल का मरहम ना मिलादाया कौन पर कीजिये, जो मिला सो गर्जी का पर निर्दय होय । <BR/>कह कबीर आसमान फटासांई के सब जीव है, क्योंकर सीवे दर्जी कीरी कुंजर दोय ॥ 76 81 ॥ <BR/><BR/>
बानी से पह्चानियेजब मैं था तब गुरु नहीं, साम चोर की घात अब गुरु हैं मैं नाय । <BR/>अन्दर की करनी से सबप्रेम गली अति साँकरी, निकले मुँह कई बात ता में दो न समाय ॥ 77 82 ॥ <BR/><BR/>
जब लगि भगति सकाम हैछिन ही चढ़े छिन ही उतरे, तब लग निष्फल सेव सो तो प्रेम न होय । <BR/>कह कबीर वह क्यों मिलेअघट प्रेम पिंजरे बसे, निष्कामी तज देव प्रेम कहावे सोय ॥ 78 83 ॥ <BR/><BR/>
फूटी आँख विवेक कीजहाँ काम तहाँ नाम नहिं, लखे ना सन्त असन्त जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । <BR/>जाके संग दस-बीस हैंदोनों कबहूँ नहिं मिले, ताको नाम महन्त रवि रजनी इक धाम ॥ 79 84 ॥ <BR/><BR/>
दाया भाव ह्र्दय नहींकबीरा धीरज के धरे, ज्ञान थके बेहद हाथी मन भर खाय । <BR/>ते नर नरक ही जायेंगेटूट एक के कारने, सुनि-सुनि साखी शब्द स्वान घरै घर जाय ॥ 80 85 ॥ <BR/><BR/>
दाया कौन पर कीजियेऊँचे पानी न टिके, का पर निर्दय होय नीचे ही ठहराय । <BR/>सांई के सब जीव हैनीचा हो सो भरिए पिए, कीरी कुंजर दोय ऊँचा प्यासा जाय ॥ 81 86 ॥ <BR/><BR/>
जब मैं था तब गुरु नहींसबते लघुताई भली, अब गुरु हैं मैं नाय लघुता ते सब होय । <BR/>प्रेम गली अति साँकरीजौसे दूज का चन्द्रमा, ता मे दो न समाय शीश नवे सब कोय ॥ 82 87 ॥ <BR/><BR/>
छिन संत ही चढ़े छिन ही उतरेमें सत बांटई, सो तो प्रेम न होय रोटी में ते टूक । <BR/>अघट प्रेम पिंजरे बसेकहे कबीर ता दास को, प्रेम कहावे सोय कबहूँ न आवे चूक ॥ 83 88 ॥ <BR/><BR/>
जहाँ काम तहाँ नाम नहिंमार्ग चलते जो गिरा, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ताकों नाहि दोष । <BR/>दोनों कबहूँ नहिं मिलेयह कबिरा बैठा रहे, रवि रजनी इक धाम तो सिर करड़े दोष ॥ 84 89 ॥ <BR/><BR/>
कबीरा धीरज के धरेजब ही नाम ह्रदय धरयो, हाथी मन भर खाय भयो पाप का नाश । <BR/>टूट एक के कारनेमानो चिनगी अग्नि की, स्वान घरै घर जाय परि पुरानी घास ॥ 85 90 ॥ <BR/><BR/>
ऊँचे पानी न टिकेकाया काठी काल घुन, नीचे ही ठहराय जतन-जतन सो खाय । <BR/>नीचा हो सो भरिए पिएकाया वैध ईश बस, ऊँचा प्यासा जाय मर्म न काहू पाय ॥ 86 91 ॥ <BR/><BR/>
सबते लघुताई भलीसुख सागर का शील है, लघुता ते सब होय कोई न पावे थाह । <BR/>जौसे दूज का चन्द्रमाशब्द बिना साधु नही, शीश नवे सब कोय द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 87 92 ॥ <BR/><BR/>
संत ही में सत बांटईबाहर क्या दिखलाए, रोटी में ते टूक अनन्तर जपिए राम । <BR/>कहे कबीर ता दास कोकहा काज संसार से, कबहूँ न आवे चूक तुझे धनी से काम ॥ 88 93 ॥ <BR/><BR/>मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । <BR/>यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥ <BR/><BR/>
जब ही नाम ह्रदय धरयोफल कारण सेवा करे, भयो पाप का नाश करे न मन से काम । <BR/>मानो चिनगी अग्नि कीकहे कबीर सेवक नहीं, परि पुरानी घास चहै चौगुना दाम ॥ 90 94 ॥ <BR/><BR/>
काया काठी काल घुनतेरा साँई तुझमें, जतन-जतन सो खाय ज्यों पहुपन में बास । <BR/>काया वैध ईश बसकस्तूरी का हिरन ज्यों, मर्म न काहू पाय फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 91 95 ॥ <BR/><BR/>
सुख सागर का शील हैकथा-कीर्तन कुल विशे, कोई न पावे थाह भवसागर की नाव । <BR/>शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 92 96 ॥ <BR/><BR/>
बाहर क्या दिखलाएकबिरा यह तन जात है, अनन्तर जपिए राम सके तो ठौर लगा । <BR/>कहा काज संसार सेकै सेवा कर साधु की, तुझे धनी से काम कै गोविंद गुन गा ॥ 93 97 ॥ <BR/><BR/>
फल कारण सेवा करे, करे न तन बोहत मन से काम काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । <BR/>कहे कबीर सेवक नहींकबहु के धर्म अगम दयी, चहै चौगुना दाम कबहुं गगन समाय ॥ 94 98 ॥ <BR/><BR/>
तेरा साँई तुझमेंजहँ गाहक ता हूँ नहीं, ज्यों पहुपन में बास जहाँ मैं गाहक नाँय । <BR/>कस्तूरी का हिरन ज्योंमूरख यह भरमत फिरे, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास पकड़ शब्द की छाँय ॥ 95 99 ॥ <BR/><BR/>
कथा-कीर्तन कुल विशेकहता तो बहुत मिला, भवसागर की नाव गहता मिला न कोय । <BR/>कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 96 100 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । <BR/>
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥ <BR/><BR/>
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । <BR/>
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥ <BR/><BR/>
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय । <BR[[कबीर दोहावली /पृष्ठ २|अगला भाग >मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥ <BR/><BR/>कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय । <BR/>सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥ <BR/><BR/>]]