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|रचनाकार=घनश्यामचन्द्र घनश्याम चन्द्र गुप्त}}{{KKVID|v=qneUpXquF-w&t=19s}}
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रूप तुम्हारा, गंध तुम्हारी, मेरा तो बस स्पर्श मात्र है
लक्ष्य तुम्हारा, प्राप्ति तुम्हारी, मेरा तो संघर्ष मात्र है
तुम असीम , मैं छुद्र विन्दु क्षुद्र बिन्दु सा , तुम चिरंजीवी चिरजीवी, मैं छन्भंगुरक्षणभंगुरतुम अनंत अनन्त हो , मैं सीमित हूँ , वट सामान समान तुम मै , मैं नव अंकुरतुम अगाध गंभीर सिन्धु हो मै चंचल से , मैं चँचल सी नन्हीं धारातुम में विलय कोटि दिनकर, मै मैं टिमटिम जलता -बुझता तारा
दृश्य तुम्हारा , दृष्टि तुम्हारी, मेरी तो तूलिका मात्र हैसृजन तुम्हारा , सृष्टि तुम्हारी, मेरी तो भूमिका मात्र है
भृकुटीभृकुटि-विलास तुम्हारा करता सृजन-विलय सम्पूर्ण सृष्टि काबन चकोर मेरा मन रहता, अभिलाषी दो बूँद वृष्टि कामेरे लिए लिये स्वयं से हटकर क्षणभर हट कर क्षण भर का चिन्तन भी भारीतुम शरणागत वत्सल परहित -हेतु हुए गोवर्धन धारीगोवर्धनधारी
व्याकुल प्राण-रहित वंशी में तुमने फूँका मंत्र मात्र है राग तुम्हारा, ताल तुम्हारी, मेरा तो बस यंत्र मात्र है.</poem>