कवि: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=निदा फ़ाज़ली]][[Category:कविताएँ]]|अनुवादक=[[Category:गज़ल]][[Category:|संग्रह=खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली]]}}{{KKCatGhazal}}<poem>नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता हैकुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है ।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैंजिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है ।
नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है<br>मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगेकुछ दिन शहर सन्नाटों में घूमे लेकिन, अब घर बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।<br><br>
मिलनेचाहत हो या पूजा सबके अपने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे साँचे हैं<br>जिससे अब तक मिले नहीं जो मूरत में ढल जाये वो अक्सर पैकर अच्छा लगता है ।<br><br>
मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे<br>सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है ।<br><br> चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं<br>जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है ।<br><br> हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में<br>जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।<br><br/poem>