"आज / साहिर लुधियानवी" के अवतरणों में अंतर
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+ | मैं तुम्हारा मुगन्नी, तुम्हारे लिए | ||
+ | जब भी आया नए गीत लाता रहूंगा | ||
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+ | '''[[आज / साहिर लुधियानवी / सुमन पोखरेल|यस कविताको नेपाली अनुवाद पढ्नलाई यहाँ क्लिक गर्नुहोस्]]''' | ||
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14:51, 27 नवम्बर 2020 के समय का अवतरण
साथियो! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
चाँद, तारों, बहारों के सपने बुने
हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा
आरज़ूओं के ऐवां<ref>कामनाओं के महल</ref> सजाता रहा
मैं तुम्हारा मुगन्नी<ref>गायक</ref>, तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहा
आज लेकिन मिरे दामने-चाक में<ref>फटे दामन में</ref>
गर्दे-राहे-सफ़र के सिवा कुछ नहीं
मेरे बरबत के सीने में नग्मों का दम घुट गया है
तानें चीखों के अम्बार में दब गई हैं
और गीतों के सुर हिचकियाँ बन गए हैं
मैं तुम्हारा मुगन्नी हूँ, नग्मा नहीं हूँ
और नग्मे की तख्लाक<ref>रचना</ref> का साज़ों-सामां
साथियों! आज तुमने भसम कर दिया है
और मैं, अपना टूटा हुआ साज़ थामे
सर्द लाशों के अम्बार को तक रहा हूँ
मेरे चारों तरफ मौत की वहशतें<ref>वीभत्सताएँ</ref> नाचती हैं
और इंसान की हैवानियत<ref>पशुता</ref> जाग उठी है
बर्बरियत<ref>बर्बरता</ref> के खूंख्वार अफ़रीत<ref>राक्षस</ref>
अपने नापाक जबड़ो को खोले
खून पी-पी के गुर्रा रहे हैं
बच्चे मांओं की गोद में सहमे हुए हैं
इस्मतें<ref>सतीत्व</ref> सर-बरह् ना<ref>नंगे सिर</ref> परीशान हैं
हर तरफ़ शोरे-आहो-बुका<ref>आहों और विलाप का शोर</ref> है
और मैं इस तबाही के तूफ़ान में
आग और खून के हैजान<ref>प्रचंडता</ref> मैं
सरनिगूं<ref>सिर झुकाए</ref> और शिकस्ता<ref>टूटे-फूटे</ref> मकानों के मलबे से पुर रास्तों पर
अपने नग्मों की झोली पसारे
दर-ब-दर फिर रहा हूँ-
मुझको अम्न और तहजीब की भीक दो
मेरे गीतों की लय, मेरे सुर, मेरी नै
मेरे मजरुह<ref>घायल</ref> होंटो को फिर सौंप दो
साथियों ! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
इन्किलाब और बग़ावत के नगमे अलापे
अजनबी राज के ज़ुल्म की छाओं में
सरफ़रोशी<ref>बलिदान</ref> के ख्वाबीदा<ref>सोये हुए</ref> ज़ज्बे उभारे
इस सुबह की राह देखी
जिसमें इस मुल्क की रूह आज़ाद हो
आज जंज़ीरे-महकूमियत<ref>दासता की बेड़ी</ref> कट चुकी है
और इस मुल्क के बह् रो-बर<ref>समुद्र और धरती</ref>, बामो-दर<ref>छत और द्वार</ref>
अजनबी कौम के ज़ुल्मत-अफशां<ref>अन्धकार फ़ैलाने वाले</ref> फरेरे<ref>झंडे</ref> की मनहूस
छाओं से आज़ाद हैं
खेत सोना उगलने को बेचैन हैं
वादियां लहलहाने को बेताब हैं
कोहसारों<ref>पहाड़ों</ref> के सीने में हैजान है
संग और खिश्त<ref>पत्थर और ईंट</ref> बेख्वाब-ओ-बेदार<ref>जागरूक</ref> हैं
इनकी आँखों में ता’मीर<ref>निर्माण</ref> के ख्वाब हैं
इनके ख्वाबों को तक्मील<ref>पूर्णता</ref> का रुख दो
मुल्क की वादियां,घाटियों,
औरतें, बच्चियां-
हाथ फैलाए खैरात की मुन्तिज़र<ref>प्रतीक्षित</ref> हैं
इनको अमन और तहज़ीब की भीक दो
मांओं को उनके होंटों की शादाबियां<ref>खुशियाँ</ref>
नन्हें बच्चों को उनकी ख़ुशी बख्श दो
मुल्क की रूह को ज़िन्दगी बख्श दो
मुझको मेरा हुनर, मेरी लै बख्श दो
मेरे सुर बख्श दो, मेरी नै बख्श दो
आज सारी फ़जा<ref>वातावरण</ref> है भिकारी
और मैं इस भिकारी फ़जा में
अपने नगमों की झोली पसरे
दर-ब–दर फिर रहा हूं
मुझको फिर मेरा खोया हुआ साज़ दो
मैं तुम्हारा मुगन्नी, तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहूंगा
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