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"लय / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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काश । एक खिड़की—
 
रसोईघर के अलावा—एक खिड़की
 
दीवानख़ाने में
 
और एक सोने के कमरे में भी
 
खुलती ।
 
  
हमारा—उनका साथ
 
दस्तरख़ान पर ही नहीं,
 
गुज़रे हुए जमाने के पुरलुत्फ़
 
जिक्रों में भी होता ।
 
और
 
बड़ी रात गये
 
बिस्तर पर लेटे
 
हम
 
देखते ही रहते
 
बड़े-बड़े चाँद को
 
मीठी रोशनी से सूनसान को नहलाते ।
 
ये झाड़-झंखार, झरबेरी;
 
नागफनी के पीले, नन्हें फूल ;
 
दरकी, मैली, काली, टूटी-फूटी क़ब्रें;
 
पगडण्डियाँ । ये कितनी उजली है ।
 
इन्हें किसने बनाया हैं
 
और कहाँ जा रही हैं ?
 
लो
 
सदियों का गवाह
 
तमाम लम्बे अतीत का प्रतीक
 
एक दीप
 
उस कोने के धुँधलके में
 
बुझते-बुझते
 
टिमटिमाने लगा ।
 
शांति । कितनी शांति ।
 
सौंदर्य ही सौंदर्य ।
 
लेकिन यह घर
 
उफ़ । यह कितना अंधेरा,
 
कैसा बंद-बंद, उजाड़, मनहूस है ।
 
आओ, चलें ।
 
यहाँ से चलें ।
 
कौन ? उधर कौन है ?
 
  
 
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19:43, 11 अक्टूबर 2008 का अवतरण