भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हवायें संदली हैं / सोम ठाकुर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोम ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> हवाए सं...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Arti Singh (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<poem> | <poem> | ||
हवाए संदली हैं | हवाए संदली हैं | ||
− | हम | + | हम बचें कैसे? |
समय के विष बुझे | समय के विष बुझे | ||
नाख़ून बढ़ते हैं | नाख़ून बढ़ते हैं | ||
पंक्ति 26: | पंक्ति 26: | ||
ज़रा जाने- | ज़रा जाने- | ||
भला ये कौन है जो | भला ये कौन है जो | ||
− | आदमी | + | आदमी की खाल से |
− | हर साज़ | + | हर साज़ मढ़ते हैं? |
समय के विष बुझे नाख़ून | समय के विष बुझे नाख़ून | ||
− | बढ़ते है | + | बढ़ते है । |
</poem> | </poem> |
09:11, 5 मार्च 2021 के समय का अवतरण
हवाए संदली हैं
हम बचें कैसे?
समय के विष बुझे
नाख़ून बढ़ते हैं
देखती आँखें छलक कर
रक्त का आकाश दहका-सा
महमहाते फागुनो में झूलकर भी
रह गया दिन बिना महका सा
पाँव बच्चों के
मदरसे की सहमती सीढ़ियों पर
बड़े डर के साथ चढ़ते हैं
स्वप्नवंशी चितवनों को दी विदा
स्वागत किया टेढ़ी निगाहों का
सहारा छीन लेते हैं पहरूए खुद
उनींदे गाँव की कमज़ोर बाहों का
ज़रा जाने-
भला ये कौन है जो
आदमी की खाल से
हर साज़ मढ़ते हैं?
समय के विष बुझे नाख़ून
बढ़ते है ।