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"तुम कभी तो आ जाते / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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रातें बुढ़ापे ने बितायी करवट बदलते हुए।
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तुम क्या जानों मेरी व्याकुलता,
 
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अभी तो जवानी आयी है, आँखें मलते हुए।
 
अभी तो जवानी आयी है, आँखें मलते हुए।

16:05, 8 अप्रैल 2021 के समय का अवतरण

तुम कभी तो आ जाते,
प्रस्तर खंडों पर चलते हुए।
इतनी रेलें चलती हैं भारत में,
गिरते कभी सँभलते हुए।
अब हैं, आहटों की प्रतीक्षा करते,
श्वासों के स्वर ढलते हुए।
चुपचाप हँसी विदा हो गई,
अन्तर्द्वन्द्वों में मचलते हुए।
कुछ झुर्रियों से था संघर्ष,
चुनौतियों के स्वर बदलते हुए।
झकझोर रही, निर्लज्जता से,
बूँदें नयनों से निकलते हुए।
इन्हीं सिकुड़ी आँखों को भिगोकर,
रातें बुढ़ापे ने बिताई करवट बदलते हुए।
तुम क्या जानों मेरी व्याकुलता,
अभी तो जवानी आयी है, आँखें मलते हुए।
अब भोर, फिर दोपहर,
फिर जर्जरता आएगी उछलते हुए।
तुम्हारे पाले हुए शिशु युवा होंगें,
और तुम नर-कंकाल समान जीर्ण झूलते हुए।
तब तुम्हें अनुभव हमारी पीड़ा होगी,
जब तुम भी होगे चिता पर जलते हुए।