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यात्रा / सुधा गुप्ता

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मैंने कहा :नाव खोल दोसूरज पीठ पर आ चुका है और अभी काफ़ी दूर जाना है ।'कहींकोई नहीं था सिर्फ़हज़ारों नन्ही लहरियाँ आडी-तिरछीहँसती-खिलखिलातीएक दूसरे को धकियाती-गृदगुदातीआपस में फुसफुतीपूछती रहीं सवाल-- किससे कहा ? किससे कहा ? ? किससे कहा ? ? ?ऊपर हैगहरी नीली हँसी बिखेरताखुला -खुला आकाश थाऔर पीठ-पीछे है चकाचौंध फैलाता शरारती सूरजकिसी भी क्षण / आँख-मिचौनी के खेल में मुझेगच्चा देकर छिप जाने वाला थादोनों ने मिलकरमेरी हँसी उड़ानी शुरू की किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा !हाँ सचकहीं , कोई भी तो नहीं था न कोई मल्‍लाह / न कोई साथी मुसाफ़िर दूर-दूर तक कहीं कोई पाखी तक नहीं सिर्फ़जल था एक नौका ओर एक मैं / अकेली मुसाफ़िरमें /खुद मल्‍लाह थी / ख़ुद पतरवार खुद मझे ही तो नाव खोलनी थी!झेंप मिटाने कोमैंलहरियों, आकाश और सूरज की हँसी में... मलशामिल हो गई : हाँ, सच तो;किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा ?-नाव तो खुद मुझे ही खोलनी हैमैं तो बिल्कुल अकेली सफ़र पर निकली हूँ!लेकिन अब लहरों/आकाश और सूरज का/मिजाज़ बदल गया था‘तुम अकेली कहाँ हो?हम जो तुम्हारे साथ हैं।’आकाश ने / भरी-पूरी नीली मुस्कान फैला दी- ‘मैं सदा से यहाँ ऐसे ही हूँ और ऐसे ही रहूँगा... .. तुम अकेली हरगिज़ नहीं हो'न सूरज खिलखिलाया--आखिर तुम किससे डरती हो.अँधेरे से? तय रा. पगली,हर किसी का सूरज उसकी अपनीमृट्ठी में बन्द होता है...जिससे वह जब चाहे / उजाला कर ले / जब भी तुम मुझे खोजोगी / में ज़रूर मिलूँगा छोड़ो इस डर को -और नाव खोल दो !”-मैंने नाव खोल दी.सूरज अब तक मेरी पीठ के बहुत नीचेजा चुका था गुम-सुम सायों की चादर फैलने लगी थीपरअबमुझे ज़रा भी डर नहीं लग रहा थालहरियाँ मेरे साथ थींआकाश का छाता तना थाऔर अपने सूरज को ढूँढनेअगली यात्रा परनिकल पड़ी थी
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