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<poem>
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ किस तरह कैसे पता नहींशायद तेरे तख़्य्युलकल्पनाओं की चिंगारी प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या फिर सूरज कि की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो कि की बाँहों में बैठ करतेरे केनवास से लिपट जाउँगीपर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूँदेंबूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक ठंडक- सी शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
 मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना यादों के धागेकायनात के कण लम्हें की तरह होते हैंमैं उन लम्हों को चुनूँगीउन धागों को समेट लूंगीमैं तुझे फिर मिलूँगीकहाँ कैसे पता नहीं
मैं उन कणों को चुनूँगीमैं तुझे फिर मिलूँगी !! </poem>
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