लगे न किसी की बुरी नज़र कभी तुझको।
बीजमन्त्र पढूँ हर बला से बचा लूँ मैं।
4
दुर्भावों की नदिया तरकर, कब कोई पार गया
डूब गया अधबीच भँवर में, जीवन भी हार गया।
मन तो इक मन्दिर था प्यारे, कुछ दीप जलाने थे
आग लगाकर नफ़रत की, जनमों का सार गया।
5
'''हम कैसे कहें कि निशदिन तुम्हारी याद आती है।'''
बसी हो मन-प्राण में ऐसी छवि ज्योति जगाती है।।
गले तुमको लगाया था, अभी तक रोम हैं सुरभित।
यही थी साध जनमों की तुमने दी जो थाती है।।
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