"सापेक्षिक जिन्दगी / अजय कुमार" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय कुमार }} {{KKCatKavita}} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | जितनी देर में | ||
+ | अपने बिस्तर से उठकर | ||
+ | अलसाये मन से | ||
+ | अपनी अलमारी में | ||
+ | ढूंढ़ निकालते हो | ||
+ | तुम अपनी | ||
+ | मनपसन्द एक किताब | ||
+ | उतनी देर में एक ठेलेदार | ||
+ | चढ़ा देता है | ||
+ | तीसरे माले तक | ||
+ | एक बोरी गेहूँ | ||
+ | जितनी देर में | ||
+ | आइने में देख कर | ||
+ | ठीक करते हो | ||
+ | आप अपनी टाई | ||
+ | और अपनी पत्नी से लेते हो | ||
+ | रोज सुबह आफिस जाने के लिए | ||
+ | एक चुम्बन के बाद विदा | ||
+ | उतनी देर में | ||
+ | फुटपाथ पर बैठा | ||
+ | एक मोची बना देता है | ||
+ | अपने ग्राहक का एक जूता | ||
− | + | जितनी देर में | |
+ | तुम नुक्कड़ की दुकान से | ||
+ | खरीदते हो एक पैकेट सिगरेट | ||
+ | उतनी देर में एक कुली | ||
+ | पुल चढ़ कर | ||
+ | किसी यात्री का | ||
+ | पहुँहुचा देता है सारा सामान | ||
+ | उसके डिब्बे तक | ||
+ | |||
+ | सापेक्षता के इस नियम से | ||
+ | मापोगे अपनी अगर जिंदगी | ||
+ | तो तुम्हें लगेगा | ||
+ | तुम भोग रहे हो | ||
+ | अपना हर दुख भी | ||
+ | कितने ऐश्वर्य से... | ||
</poem> | </poem> |
02:20, 17 नवम्बर 2022 का अवतरण
जितनी देर में
अपने बिस्तर से उठकर
अलसाये मन से
अपनी अलमारी में
ढूंढ़ निकालते हो
तुम अपनी
मनपसन्द एक किताब
उतनी देर में एक ठेलेदार
चढ़ा देता है
तीसरे माले तक
एक बोरी गेहूँ
जितनी देर में
आइने में देख कर
ठीक करते हो
आप अपनी टाई
और अपनी पत्नी से लेते हो
रोज सुबह आफिस जाने के लिए
एक चुम्बन के बाद विदा
उतनी देर में
फुटपाथ पर बैठा
एक मोची बना देता है
अपने ग्राहक का एक जूता
जितनी देर में
तुम नुक्कड़ की दुकान से
खरीदते हो एक पैकेट सिगरेट
उतनी देर में एक कुली
पुल चढ़ कर
किसी यात्री का
पहुँहुचा देता है सारा सामान
उसके डिब्बे तक
सापेक्षता के इस नियम से
मापोगे अपनी अगर जिंदगी
तो तुम्हें लगेगा
तुम भोग रहे हो
अपना हर दुख भी
कितने ऐश्वर्य से...