"स्तालिन के वारिस / येव्गेनी येव्तुशेंको" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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अनुरोध करता हूँ मैं अपनी सरकार से | अनुरोध करता हूँ मैं अपनी सरकार से | ||
कि वह पहरेदारों की संख्या दोगुनी कर दे | कि वह पहरेदारों की संख्या दोगुनी कर दे | ||
− | दोगुनी | + | दोगुनी नहीं, बल्कि तिगुनी कर दे |
ताकि स्तालिन न उठ खड़ा हो | ताकि स्तालिन न उठ खड़ा हो | ||
अपने फ़ौलादी इतिहास से | अपने फ़ौलादी इतिहास से | ||
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सच्चे मन से हमने यह देश संभाला था | सच्चे मन से हमने यह देश संभाला था | ||
− | वह डरता था हमसे | + | पर वह डरता था हमसे |
वह, जो उद्देश्य में रखता था विश्वास | वह, जो उद्देश्य में रखता था विश्वास | ||
पर साधन उद्देश्य के अनुकूल हों | पर साधन उद्देश्य के अनुकूल हों |
01:12, 24 नवम्बर 2022 का अवतरण
संगमरमर ख़ामोश था
निःशब्द खड़े थे पहरेदार
चुपचाप चमक रहा था शीशा
सन्नाटा बुन रही थी बयार
और ताबूत से उठा रही थी भाप
मानो वह ले रहा हो साँस
जब उसे निकाला गया बाहर
समाधि के दरवाज़ों के पार
वह धीमे-धीमे तैर रहा था जैसे
कोने उसके छू रहे थे चौखटों को ऐसे
सिर्फ़ वह ही था जैसे
उस चुप्पी का जनक
लेकिन चुप्पी थी वह बड़ी भयानक
दिखाई दे रही थीं उस ताबूत में कई फाँकें
ऐसा लगता था उनसे व्यक्ति वह झाँके
जो उदास हो मुट्ठियाँ अपनी बन्द करे था
चुपचाप जो एक मृतक का वेष धरे था
वह याद कर लेना चाहता था उन सभी को
उसे समाधि से बाहर कर रहे थे जो
उनमें कुछ सैनिक थे रिज़ान के
शेष युवा नवसैनिक थे कूर्स्क प्रांत के
उन्हें याद कर लेना चाहता था वह
बाद में ताकि
उठ खड़ा हो धरती से वह, समेट के
अपनी ताक़त बाक़ी
फिर उन मूर्खों तक जा पहुँचे, जिन्होंने यह खता की
वह क्षण भर को ठिठक गया था
सिगरेट जला ली थी उसने
कुछ सोच में पड़ गया था
और अब
अनुरोध करता हूँ मैं अपनी सरकार से
कि वह पहरेदारों की संख्या दोगुनी कर दे
दोगुनी नहीं, बल्कि तिगुनी कर दे
ताकि स्तालिन न उठ खड़ा हो
अपने फ़ौलादी इतिहास से
हमने बुआई की थी सच्चे मन से
सच्चे मन से हमने धातु को ढाला था
सच्चे मन से हमने क़दम बढ़ाए थे
सच्चे मन से हमने यह देश संभाला था
पर वह डरता था हमसे
वह, जो उद्देश्य में रखता था विश्वास
पर साधन उद्देश्य के अनुकूल हों
यह नहीं था उसे स्वीकार
वह दूरदर्शी था, युद्ध के नियमों का तजु़र्बेकार
चला गया वह
छोड़ गया वह इस धरती पर
ढेरों अपने वारिस
फैल गए हैं कामरेड बन वे सारे ‘तवारिश’
मुझे लगे यह
कि ताबूत में उसके फ़ोन लगा है
आदेश दे रहा है जिस पर वह
स्तालिन पुनः जगा है
कहाँ-कहाँ तक पहुँच रहे हैं इस फ़ोन के तार
नहीं, स्तालिन मरा नहीं है अभी
वह मानता है
ग़लती मौत की वह लेगा सुधार
हमने स्तालिन को बाहर निकाला समाधि के भीतर से
पर क्या निकाल पाएँगे हम उसे
उसके वारिसों के घर से
कुछ वारिस उसके पदच्युत हो गए
पर अब भी फूलों को काट रहे हैं
पर पदत्याग सामयिक है
मन-ही-मन यह मान रहे हैं
कुछ वारिस उसके मंच पर चढ़कर
गाली देते स्तालिन के भय को
फिर रातों को याद कर रोते पुराने उस समय को
स्तालिन के वारिसों को हो रहे हैं हृदयघात
यह समय उन्हें नहीं भाता, लगता है आघात
क्यों ख़ाली हैं यातना-शिविर
क्यों हो गई नई चाल
कविता के श्रोताओं से क्यों भरे हुए हैं हॉल
मातृभूमि ने मेरी मुझे दिया है यह आदेश
छोड़ गुस्सा अपना शान्ति से आऊँ पेश
पर मैं कैसे भूल जाऊँ, ऐ मेरे प्रिय देश
जब तक जीवित हैं इस धरती पर स्तालिन के वारिस
तब तक अपनी उस समाधि में स्तालिन भी है शेष