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बनारस / केदारनाथ सिंह

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|रचनाकार=केदारनाथ सिंह |संग्रह=यहाँ से देखो / केदारनाथ सिंह
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इस शहर में वसंत
 
अचानक आता है
 
और जब आता है तो मैंने देखा है
 
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
 
उठता है धूल का एक बवंडर
 
और इस महान पुराने शहर की जीभ
 
किरकिराने लगती है
 
जो है वह सुगबुगाता है
 
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
 
आदमी दशाश्‍वमेध पर जाता है
 
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
 
कुछ और मुलायम हो गया है
 
सीढि़यों पर बैठे बंदरों की आँखों में
 
एक अजीब सी नमी है
 
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
 
भिखारियों के कटरों का निचाट खालीपन
 
तुमने कभी देखा है
 
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
 
यह शहर इसी तरह खुलता है
 
इसी तरह भरता
 
और खाली होता है यह शहर
 
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
 
ले जाते हैं कंधे
 
अँधेरी गली से
 
चमकती हुई गंगा की तरफ़
 
इस शहर में धूल
 
धीरे-धीरे उड़ती है
 
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
 
धीरे-धीरे बजते हैं घनटे
 
शाम धीरे-धीरे होती है
 
यह धीरे-धीरे होना
 
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
 
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
 
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
 
कि हिलता नहीं है कुछ भी
 
कि जो चीज़ जहाँ थी
 
वहीं पर रखी है
 
कि गंगा वहीं है
 
कि वहीं पर बँधी है नाँव
 
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
 
सैकड़ों बरस से
 
कभी सई-साँझ
 
बिना किसी सूचना के
 
घुस जाओ इस शहर में
 
कभी आरती के आलोक में
 
इसे अचानक देखो
 
अद्भुत है इसकी बनावट
 
यह आधा जल में है
 
आधा मंत्र में
 
आधा फूल में है
 
आधा शव में
 
आधा नींद में है
 
आधा शंख में
 
अगर ध्‍यान से देखो
 
तो यह आधा है
 
और आधा नहीं भी है
 
जो है वह खड़ा है
 
बिना किसी स्‍थंभ के
 
जो नहीं है उसे थामें है
 
राख और रोशनी के ऊँचे ऊँचे स्‍थंभ
 
आग के स्‍थंभ
 
और पानी के स्‍थंभ
 
धुऍं के
 
खुशबू के
 
आदमी के उठे हुए हाथों के स्‍थंभ
 
किसी अलक्षित सूर्य को
 
देता हुआ अर्घ्‍य
 
शताब्दियों से इसी तरह
 
गंगा के जल में
 
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
 
अपनी दूसरी टाँग से
 
बिलकुल बेखबर!
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