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<poem>
रात भर पानी बरसता और सारे दिन अंगारे ।
अब तुम्ही बोलो कि कोई ज़िंदगी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारे ? आदमी ऐसा नहीं है आज कोई,साँस हो जिसने न पानी में भिगोई,दर्द सबके पाँव में रहने लगा है,ख़ास दुश्मन, गाँव में रहने लगा है,द्वार से आँगन अलहदा हो रहे हैं,चढ़ गया है दिन मगर सब सो रहे हैं, अब तुम्हीं बोलो कि फिर आवाज़ पहली कौन मारे,कौन इस वातावरण की बन्द पलकों को उघारे।
बेवज़ह सब लोग भागे जा रहे हैं,
मूलतः बदले हुए हैं आचरण से,
रह गए हैं बात वाले लोग थोड़े,
और अब तूफ़ान का मुँह कौन मोडेमोड़े,  
नाव डाँवाडोल है ऐसी कि कोई क्या उबारे,
जब डुबाने पर तुले ही हो किनारे पर किनारे ।
नागरिकता दी नहीं जाती सृजन को,
अश्रु मिलते है तृषा के आचमन को,
 
एक उत्तर के लिए हल हो रहे हैं ढेर सारे ।
और जिनके पास हल है बंद हैं बन्द हैं उनके किवारे ।
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