भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
छो |
||
पंक्ति 16: | पंक्ति 16: | ||
घमंडी नोट क्या समझेंगे खन-खन रेज़गारी की, | घमंडी नोट क्या समझेंगे खन-खन रेज़गारी की, | ||
− | वो कहते हैं जिसे झगड़ा, यहाँ व्यायाम होता है। | + | वो कहते हैं जिसे झगड़ा, यहाँ व्यायाम होता है। |
− | कभी करते | + | यहाँ हुक्काम जनसेवा कभी करते थे पर अब तो, |
− | कमाना | + | कमाना, चमचई, जुल्म-ओ-सितम ही काम होता है। |
</poem> | </poem> |
10:22, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है।
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है।
वो बाबा जो ठहरते हैं रईसों के ही घर हरदम,
उन्हीं का मोह माया त्याग दो पैगाम होता है।
सियासत इस तरह समझो, ये है वो नास्तिक जिसके,
ख़ुदा होंठों पे रहता है ज़ुबाँ पे राम होता है।
घमंडी नोट क्या समझेंगे खन-खन रेज़गारी की,
वो कहते हैं जिसे झगड़ा, यहाँ व्यायाम होता है।
यहाँ हुक्काम जनसेवा कभी करते थे पर अब तो,
कमाना, चमचई, जुल्म-ओ-सितम ही काम होता है।