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उड़ चल हारिल / अज्ञेय

158 bytes removed, 03:24, 5 जून 2024
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|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय
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<poem>
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!
लेखक: [[अज्ञेय]]शक्ति रहे तेरे हाथों में [[Category:कविताएँ]]छूट न जाय यह चाह सृजन की [[Category:अज्ञेय]]शक्ति रहे तेरे हाथों में रुक न जाय यह गति जीवन की!
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल अनथक पंखों की चोटों से नभ में एक मचा दे हलचल!
उड़ चल हारिल लिये हाथ तिनका तेरे हाथों में <br>है यही अकेला ओछा तिनका <br>अमर एक रचना का साधन उषा जाग उठी प्राची तिनका तेरे पंजे में <br>है कैसी बाट, भरोसा किन विधना के प्राणों कास्पंदन! <br><br>
शक्ति रहे तेरे हाथों काँप न यद्यपि दसों दिशा में <br>छूट न जाय यह चाह सृजन की <br>शक्ति रहे तेरे हाथों में <br>तुझे शून्य नभ घेर रहा है रुक न जाय यह गति जीवन कीयद्यपि उपहास जगत का तुझको पथ से हेर रहा है! <br><br>
ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर <br>तू मिट्टी था, किन्तु आज बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल <br>मिट्टी को तूने बाँध लिया है अनथक पंखों की चोटों से <br>तू था सृष्टि किन्तु स्रष्टा का नभ में एक मचा दे हलचलगुर तूने पहचान लिया है! <br><br>
तिनका तेरे हाथों में मिट्टी निश्चय है <br>यथार्थ परअमर एक रचना का साधन <br>तिनका तेरे पंजे में क्या जीवन केवल मिट्टी है <br>?विधना के प्राणों का स्पंदन! <br><br>तू मिट्टी, पर मिट्टी सेउठने की इच्छा किसने दी है?
काँप न यद्यपि दसों दिशा में <br>आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल कातुझे शून्य नभ घेर रहा तू है <br>दुर्निवार हरकारा रुक न यद्यपि उपहास जगत का <br>दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका तुझको सूने पथ से हेर रहा हैका एक सहारा! <br><br>
तू मिट्टी था, किन्तु आज <br>मिट्टी को तूने बाँध से जो छीन लिया है <br>तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा वह तज देना धर्म नहीं है जीवन साधन की अवहेला कर्मवीर का <br>गुर तूने पहचान लिया कर्म नहीं है! <br><br>
मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर <br>तिनका पथ की धूल स्वयं तू क्या जीवन केवल मिट्टी है? <br>अनंत की पावन धूली तू मिट्टी, पर मिट्टी से <br>किन्तु आज तूने नभ पथ में उठने की इच्छा किसने दी है? <br><br>क्षण में बद्ध अमरता छू ली!
आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल ऊषा जाग उठी प्राची में आवाहन यह नूतन दिन का <br>तू है दुर्निवार हरकारा <br>उड़ चल हारिल लिये हाथ में दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह एक अकेला पावन तिनका <br>सूने पथ का एक सहारा! <br><br>
मिट्टी से जो छीन लिया है <br>'''गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938'''वह तज देना धर्म नहीं है <br>जीवन साधन की अवहेला <br>कर्मवीर का कर्म नहीं है! <br> तिनका पथ की धूल स्वयं तू <br>है अनंत की पावन धूली <br>किन्तु आज तूने नभ पथ में <br>क्षण में बद्ध अमरता छू ली! <br><br> ऊषा जाग उठी प्राची में <br>आवाहन यह नूतन दिन का <br>उड़ चल हारिल लिये हाथ में <br>एक अकेला पावन तिनका! <br><br/poem>