"उड़ चल हारिल / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | उड़ चल हारिल लिये हाथ में | ||
+ | यही अकेला ओछा तिनका | ||
+ | उषा जाग उठी प्राची में | ||
+ | कैसी बाट, भरोसा किन का! | ||
− | + | शक्ति रहे तेरे हाथों में | |
− | + | छूट न जाय यह चाह सृजन की | |
− | + | शक्ति रहे तेरे हाथों में | |
− | + | रुक न जाय यह गति जीवन की! | |
− | + | ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर | |
− | + | बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल | |
− | + | अनथक पंखों की चोटों से | |
− | + | नभ में एक मचा दे हलचल! | |
− | + | तिनका तेरे हाथों में है | |
− | + | अमर एक रचना का साधन | |
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− | + | विधना के प्राणों का स्पंदन! | |
− | + | काँप न यद्यपि दसों दिशा में | |
− | + | तुझे शून्य नभ घेर रहा है | |
− | + | रुक न यद्यपि उपहास जगत का | |
− | + | तुझको पथ से हेर रहा है! | |
− | + | तू मिट्टी था, किन्तु आज | |
− | + | मिट्टी को तूने बाँध लिया है | |
− | + | तू था सृष्टि किन्तु स्रष्टा का | |
− | + | गुर तूने पहचान लिया है! | |
− | + | मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर | |
− | मिट्टी | + | क्या जीवन केवल मिट्टी है? |
− | तू | + | तू मिट्टी, पर मिट्टी से |
− | + | उठने की इच्छा किसने दी है? | |
− | + | आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का | |
− | + | तू है दुर्निवार हरकारा | |
− | + | दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका | |
− | + | सूने पथ का एक सहारा! | |
− | + | मिट्टी से जो छीन लिया है | |
− | + | वह तज देना धर्म नहीं है | |
− | + | जीवन साधन की अवहेला | |
− | + | कर्मवीर का कर्म नहीं है! | |
− | + | तिनका पथ की धूल स्वयं तू | |
− | + | है अनंत की पावन धूली | |
− | + | किन्तु आज तूने नभ पथ में | |
− | + | क्षण में बद्ध अमरता छू ली! | |
− | + | ऊषा जाग उठी प्राची में | |
− | + | आवाहन यह नूतन दिन का | |
− | + | उड़ चल हारिल लिये हाथ में | |
− | + | एक अकेला पावन तिनका! | |
− | + | '''गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938''' | |
− | + | </poem> | |
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08:54, 5 जून 2024 के समय का अवतरण
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!
शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!
ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!
तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!
काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!
तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु स्रष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है!
मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?
आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!
मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!
तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!
ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!
गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938