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पटकथा / पृष्ठ 4 / धूमिल

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उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिन्दगी ज़िन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।
‘सुनो !
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
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