भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बेवफ़ाई का सिला भी जो वफ़ा देते हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 15: पंक्ति 15:
 
गर वो नाक़र्दा गुनाहों की सज़ा देते हैं
 
गर वो नाक़र्दा गुनाहों की सज़ा देते हैं
  
देर से जाऊँगा दफ़्तर तो कटेगी तनख़्वाह
+
देर से जाऊँगा दफ़्तर तो कटेगा वेतन
 
वो इसी डर से मुझे रोज़ जगा देते हैं
 
वो इसी डर से मुझे रोज़ जगा देते हैं
  
यूँ इशारों से मुझे पास बुलाते क्यों हो  
+
यूँ इशारों से मुझे पास बुलाते क्यों हो
 
लोग तो तिल का यहाँ ताड़ बना देते हैं
 
लोग तो तिल का यहाँ ताड़ बना देते हैं
  
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
 
हक़ में बीमार के करते हैं दुआएं भी तबीब
 
हक़ में बीमार के करते हैं दुआएं भी तबीब
 
कुछ 'रक़ीब' ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं
 
कुछ 'रक़ीब' ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं
 +
 
</poem>
 
</poem>

22:51, 28 जनवरी 2025 के समय का अवतरण

बेवफ़ाई का सिला भी जो वफ़ा देते हैं
अपनी फ़ितरत का ज़माने को पता देते हैं

आप बाहोश रहें सोच-समझ कर बोलें
तल्ख़ जुमले भी यहां आग लगा देते हैं

आह मजलूम की मुंसिफ़ को न जीने देगी
गर वो नाक़र्दा गुनाहों की सज़ा देते हैं

देर से जाऊँगा दफ़्तर तो कटेगा वेतन
वो इसी डर से मुझे रोज़ जगा देते हैं

यूँ इशारों से मुझे पास बुलाते क्यों हो
लोग तो तिल का यहाँ ताड़ बना देते हैं

ज़ह्नो-दिल ज़ब्त से खाली हैं यक़ीनन उनके
"कर के अहसान किसी पर जो जता देते हैं"

याद आती है बहुत पास न हों बच्चे तो
घर में आते ही जो कोहराम मचा देते हैं

उनके किरदार का सानी ही नहीं दुनिया में
जब भी बिगड़ी है कोई बात, बना देते हैं

हक़ में बीमार के करते हैं दुआएं भी तबीब
कुछ 'रक़ीब' ऐसे हैं जो सिर्फ़ दवा देते हैं