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"कोई इस शहर में अपना नज़र आता ही नहीं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

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कोई इस शहर में अपना नज़र आता ही नहीं
 
कोई इस शहर में अपना नज़र आता ही नहीं
कोई दरवाज़ा मोहब्बत का यहाँ वा ही नहीं  
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कोई दरवाज़ा मोहब्बत का यहाँ वा ही नहीं
  
 
घर के दर पे जो तेरा नाम था वो मिट तो गया
 
घर के दर पे जो तेरा नाम था वो मिट तो गया
और दिल पर जो तेरा नाम है मिटता ही नहीं  
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और दिल पर जो तेरा नाम है मिटता ही नहीं
  
 
ज़ुल्फ़ की छाँव में कुछ देर कहीं रुक जाओ
 
ज़ुल्फ़ की छाँव में कुछ देर कहीं रुक जाओ
प्यार भी चाहिए इंसान को रुपया ही नहीं  
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प्यार भी चाहिए इंसान को पैसा ही नहीं
  
 
ज़हनो दिल में है मेरे फ़िक्र का सूरज रौशन
 
ज़हनो दिल में है मेरे फ़िक्र का सूरज रौशन
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हाथ जिसने मेरा देखा है वो ये कहता है
 
हाथ जिसने मेरा देखा है वो ये कहता है
के तेरे हाथ में सुख चैन की रेखा ही नहीं  
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के तेरे हाथ में सुख चैन की रेखा ही नहीं
  
 
बत्तियाँ बुझ गईं होने को है सुब्हा शायद
 
बत्तियाँ बुझ गईं होने को है सुब्हा शायद
 
राह तकने में कटी रात वो आया ही नहीं
 
राह तकने में कटी रात वो आया ही नहीं
 
लिख्खे साहिल पे जो उंगली से मिटाती मौजें
 
नाम दिल पे है लिखा किससे जो मिटता ही नहीं
 
  
 
उसकी तस्वीर थी महफूज़ तेरी आँखों में
 
उसकी तस्वीर थी महफूज़ तेरी आँखों में
 
"आईना तूने कभी गौर से देखा ही नहीं"
 
"आईना तूने कभी गौर से देखा ही नहीं"
  
मुंबई शहर की मिट्टी की है तासीर अजब
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खाक में शहर की तासीर अजब सी देखी
 
जो 'रक़ीब' आता है वो लौट के जाता ही नहीं
 
जो 'रक़ीब' आता है वो लौट के जाता ही नहीं
 
 
मिक़नातीसी सी है ये मुंबई की खाक 'रक़ीब'
 
जो यहाँ आता है वो लौट के जाता ही नहीं 
 
  
 
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21:11, 2 फ़रवरी 2025 के समय का अवतरण

कोई इस शहर में अपना नज़र आता ही नहीं
कोई दरवाज़ा मोहब्बत का यहाँ वा ही नहीं

घर के दर पे जो तेरा नाम था वो मिट तो गया
और दिल पर जो तेरा नाम है मिटता ही नहीं

ज़ुल्फ़ की छाँव में कुछ देर कहीं रुक जाओ
प्यार भी चाहिए इंसान को पैसा ही नहीं

ज़हनो दिल में है मेरे फ़िक्र का सूरज रौशन
और मेरे घर में मोहब्बत का उजाला ही नहीं

हाथ जिसने मेरा देखा है वो ये कहता है
के तेरे हाथ में सुख चैन की रेखा ही नहीं

बत्तियाँ बुझ गईं होने को है सुब्हा शायद
राह तकने में कटी रात वो आया ही नहीं

उसकी तस्वीर थी महफूज़ तेरी आँखों में
"आईना तूने कभी गौर से देखा ही नहीं"

खाक में शहर की तासीर अजब सी देखी
जो 'रक़ीब' आता है वो लौट के जाता ही नहीं