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"खोखे बटोरती हँसी / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर

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जैसे कोई पुराना कागज़
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जैसे कोई दूर का ढोल
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बिना ताल के टूटता हो।
  
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दो छोटे-छोटे हाथ
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पीतल के खोखे बीनते हैं।
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खोखे, जो कभी गोली थे
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अब उनके लिए
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टूटी पतंग की डोर।
  
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महमूद की आँखों में
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एक रोटी चमकती है।
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“माँ आज रोटी खाएगी,”
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वह हँसता है
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जैसे बारूद को चुनौती दे रहा हो।
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पर उसकी बात
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धूल के साथ उड़ जाती है
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जैसे चिड़िया बिना पंख की।
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महेश गिनता है—
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“एक, दो, तीन...
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इनसे बहन की स्लेट आएगी।”
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उसकी हँसी
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जैसे टूटा घंटा
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जो फिर भी टुनटुनाता है।
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जैसे कोई पुराना रेडियो
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आखिरी गीत गाता हो।
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वे हँसते हैं
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खोखे बटोरते हैं
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जैसे कोई खेल हो
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जहाँ सब कुछ बिकता है —
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पानी, हँसी, और बच्चों की नींद।
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खोखे सिर्फ़ पीतल नहीं।
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वे माँ के चूल्हे हैं
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जो बिना लकड़ी के राख हुए।
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वे बाप की जेब हैं
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जो ख़ाली लौटी।
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वे नदी हैं
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जो बच्चों के खेल में बहती थी
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पर बारूद की गंध में
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अपना नाम भूल गई।
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महमूद कहता है -
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“एक दिन मिठाई खाएँगे।”
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महेश कहता है -
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“एक दिन किताब पढ़ेंगे।”
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आकाश देखता है
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जैसे फटा हुआ कंबल,
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जो तारों को छिपा नहीं पाता।
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सीमा पर धूल उड़ती है।
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दो बच्चे खोखे बटोरते हैं।
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उनके बीच
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एक छोटा-सा फूल हँसता है,
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पर युद्ध की धूप में
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उसकी छाया धूल में गुम हो जाती है।
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19:53, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण

सीमा पर धूल नहीं रुकती।
वह उड़ती है
जैसे कोई पुराना कागज़
हवा में गोल-गोल घूमता हो।
बम की आवाज़ आती है
जैसे कोई दूर का ढोल
बिना ताल के टूटता हो।

महमूद और महेश
दो छोटे-छोटे हाथ
पीतल के खोखे बीनते हैं।
खोखे, जो कभी गोली थे
अब उनके लिए
टूटी पतंग की डोर।

महमूद की आँखों में
एक रोटी चमकती है।
“माँ आज रोटी खाएगी,”
वह हँसता है
जैसे बारूद को चुनौती दे रहा हो।
पर उसकी बात
धूल के साथ उड़ जाती है
जैसे चिड़िया बिना पंख की।

महेश गिनता है—
“एक, दो, तीन...
इनसे बहन की स्लेट आएगी।”
उसकी हँसी
जैसे टूटा घंटा
जो फिर भी टुनटुनाता है।

बम की गूँज आती है,
जैसे कोई पुराना रेडियो
आखिरी गीत गाता हो।
वे हँसते हैं
खोखे बटोरते हैं
जैसे कोई खेल हो
जहाँ सब कुछ बिकता है —
पानी, हँसी, और बच्चों की नींद।

खोखे सिर्फ़ पीतल नहीं।
वे माँ के चूल्हे हैं
जो बिना लकड़ी के राख हुए।
वे बाप की जेब हैं
जो ख़ाली लौटी।
वे नदी हैं
जो बच्चों के खेल में बहती थी
पर बारूद की गंध में
अपना नाम भूल गई।

महमूद कहता है -
“एक दिन मिठाई खाएँगे।”
महेश कहता है -
“एक दिन किताब पढ़ेंगे।”
आकाश देखता है
जैसे फटा हुआ कंबल,
जो तारों को छिपा नहीं पाता।

सीमा पर धूल उड़ती है।
दो बच्चे खोखे बटोरते हैं।
उनके बीच
एक छोटा-सा फूल हँसता है,
पर युद्ध की धूप में
उसकी छाया धूल में गुम हो जाती है।
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