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<poem>
ज़िंदगी परेशान है कि
ज़िदा रहने के लिए
क्या- क्या जुगाड़ लगाना पड़ता है
जीने की जद्दोजहद में
थोड़ा-थोड़ा रोज़ मर जाना पड़ता है ....
गरीब के पास खाल नहीं बची, वो क्या खिंचवाएगा!अमीर अजगर की चमड़ी लिये बैठा है उसे कौन हाथ लगाएगापर तुम,तुम बेटा आवाज़, गरदन, आँख सब नीची रखो कि तुम मध्यम वर्गीय हो सियासत की हांडी में मांस तुम्हारा ही तो पकता है और तुम भूले से भी भूल न जाना , जीने के लिए थोड़ा-थोड़ा रोज़ मर जाना पड़ता है।गरीब के पास कपड़ा है ही नहीं , वो क्या तन छिपाएगाअमीर को फैशन का हक है, वो साबूत कपड़ों पर ब्लेड, कैंची चला पीठ, जांघें, कंधे सब दिखाएगापर तुम तुम बेटा दुपट्टा, सूट, साड़ी सब सँभालके पहनो कि तुम मध्यम वर्गीय हो देश की परम्पपरा और संस्कृति का रथतुम्हारे ही आचरण के पहियों पर तो चलता हैतुम भूले से......फूस का छप्पर था उड़ गयागरीब क्या मातम मनाएगा!अमीर-ए-शहर में आपदाओं का प्रवेश वर्जित है वो क्यों घबराएगापर तुम,तुम ज़रा आढे वक्त में अपनी छत और ज़मीन बचाके रखनाकि बाढ़ और सूखे की सुरसा का पेट तो तुम्हारे ही घरों से भरता है तुम भूले से न भूल न जानाकि देश की तरक्की में बलि मिडिल क्लास ही चढ़ता हैतुम वो वर्ग हो जिसेज़िंदा रहने के लिए इस देश में बहुत जुगाड़ लगाना पडताजीने की जद्दोजहद में थोड़ा-थोड़ा रोज़ मर जाना पड़ता है।-0-
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