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"तृतीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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क्या इस जगत का मूल कारण, ब्रह्म कौन व् हम सभी?<br>
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यह विश्व रूप है जाल का, और जिसका अधिपति ब्रह्म है,<br>
उत्पन्न किससे, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?<br>
+
स्वरुप शासन शक्तियों से, सत्ता जिसकी अगम्य है।<br>
किसकी व्यवस्था के अनंतर, दुःख सुख का विधान है, <br>
+
वह एकमेव ही ब्रह्म पूर्ण समर्थ क्षमतावान है,<br>
कथ कौन संचालक जगत का, कौन ब्रह्म महान है? [ १ ]<br><br>
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जो जानते परब्रह्म को वे ही अमर भी हैं, महान हैं॥ [ १ ]<br><br>
 
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वही आत्म भू सत्ता व् शक्ति से विश्व पर शासन करे,<br>
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वही एकमेव अभिन्न पूर्ण जो सृष्टि का नियमन करे।<br>
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वही प्राणियों में प्राण, सृष्टि का नियामक रूप है,<br>
 +
वही प्रलय काले सृष्टि स्व में ,  समेट लेता अनूप है॥ [ २ ]<br><br>
 
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सर्वत्र चक्षु व् हाथ, मुख, वही पैरों वाला ही ब्रह्म है,<br>
 +
आकाश पृथ्वी का रचयिता , अगम मर्म अगम्य है।<br>
 +
हाथों से दो- दो जीवों को तो युक्त करता है प्रभो,<br>
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पंखों  से दो-दो  पक्षियों को , युक्त करता है विभो॥ [ ३ ]<br><br>
 
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विश्वधिपति परब्रह्म का, जो रुद्र रूप उत्कर्ष है,<br>
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वही वृद्धि व् उत्पत्ति का सर्वज्ञ हेतु महर्षि है।<br>
 +
सृष्टि के आदि में हिरण्य गर्भ की, ब्रह्म ने की सर्जना,<br>
 +
वही स्वस्ति बुद्धि से हमें संयुक्त कर दे, प्रार्थना॥ [ ४ ]<br><br>
 
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शिव,सौम्य, पुण्य प्रभा प्रकाशित , रुद्र रूप महान जो,<br>
 +
उस मूर्ति से कल्याण पाओ ,  मानवों उसको भजो।<br>
 +
शिव शक्ति स्वस्ति अभिप्रियम ,  कल्याणमय गिरिशन्त हे!<br>
 +
तेरी कृपा की दृष्टि मात्र को, हम प्रनत हैं अनंत हे! ॥ [ ५ ]<br><br>
 
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गिरिशन्त ! हे गिरिराज ! रक्षक तुम हिमालय के महा,<br>
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जो वाण धारण हाथ में , वह न विनाशक हो अहा !<br>
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उस वाण को कल्याण मय,  होने दो हे करुणा निधे,<br>
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हिंसा जगत से जीव की , किंचित न होवे महाविधे॥ [ ६ ]<br><br>
 
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पूर्वोक्त जीव समूह जग से , ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ हैं,<br>
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सब जीवों में अनुकूल उनके जीवों के ही तिष्ठ हैं।<br>
 +
सब जगत को सब ओर से ,  घेरे हुए व्यापक महा,<br>
 +
उस एक ब्रह्म को जान , ज्ञानी अमर हो जाते यहाँ॥ [ ७ ]<br><br>
 
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जो ज्ञानी महिमामय परम परमेश प्रभु को जानता,<br>
 +
वही तम् अविद्या से परे ,  रवि रूप की हो महानता।<br>
 +
जिसे जान कर ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर सके,<br>
 +
फ़िर जन्म-मृत्यु विहीन हो, पद परम पाकर तर सके॥ [ ८ ]<br><br>
 
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परमेश प्रभु से श्रेष्ठ , कोई दूसरा किंचित कहीं ,<br>
 +
सूक्ष्मातिसूक्ष्म , महिम महे कोई अन्य अथ स्थित नहीं।<br>
 +
वही एक निश्छल भाव से ,  सम वृक्ष नभ आरूढ़ है,<br>
 +
ब्रह्माण्ड में परिपूर्ण स्थित , मर्म ब्रह्म के गूढ़ हैं॥ [ ९ ]<br><br>
 
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ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।
+
ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।<br>
 
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥<br>
 
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥<br>
 
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आकार हीन विकास शून्य , अति परम प्रभो जिसे विज्ञ है,<br>
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वे ही जन्म मृत्यु विहीन ,  जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्रतिज्ञ है।<br>
 +
इस मर्म से अनभिज्ञ जो ,  पुनि -पुनि जनम व् मरण के,<br>
 +
दुःख पाते और भटकते हैं, बिन करुणा निधि की शरण के॥ [ १० ]<br><br>
 
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सब ओर मुख सर ग्रीवा वाला है महत करुणानिधे,<br>
 +
सब प्राणियों के हृदय रूपी गुफा में है महाविधे।<br>
 +
प्रभु सर्वव्यापी है अतः, व्यापकता अणु- कण व्याप्त है,<br>
 +
साधक जहाँ जिस रूप में , चाहें वह सबको प्राप्त है॥ [ ११ ]<br><br>
 
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निश्चय ही प्रभुता पूर्ण प्रभु , शासक समर्थ महान है,<br>
 +
अविनाशी अव्यय ज्योतिमय के, न्याय पूर्ण विधान हैं।<br>
 +
अंतःकरण मानव का प्रेरित , करता अपनी ओर है,<br>
 +
किंतु मानव सुप्त , माया मोह में ही विभोर है॥ [ १२ ]<br><br>
 
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अंगुष्ठ के परिमाण वाला है, ब्रह्म सबके हृदय में,<br>
 +
सम्यक विधि स्थित समाहित काल क्रम व् समय में।<br>
 +
निर्मल हृदय व् विशुद्ध मन ,  साधक यदि करे ध्यान तो,<br>
 +
वही जन्म -मृत्यु विहीन लीन हो, ब्रह्म में ही शत कृतो॥ [ १३ ]<br><br>
 
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वह परम पुरुषोत्तम सहस्त्रों ,  चक्षु ,  सिर, पग युक्त है,<br>
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विश्वानि जग सब ओर से आवृत किए संयुक्त है।<br>
 +
नाभी से दस अंगुल जो ऊपर , हृदय में स्थित सदा,<br>
 +
है निर्विकारी , व्याप्त, हृदयों में दीन वत्सल वसुविदा॥ [ १४ ]<br><br>
 
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त्रिकाल चक्र तो ब्रह्म इच्छा के ही सब अनुरूप है,<br>
 +
खाद्यान्नों से विकसित है जो कुछ , ब्रह्म का ही स्वरुप है।<br>
 +
मोक्ष का स्वामी ,  अमिय रूपी  अचिन्त्य की शक्ति से,<br>
 +
भावः बंधनों से मुक्त मानव होता प्रभु की भक्ति से॥ [ १५ ]<br><br>
 
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सर्वत्र ही मुख, आँख, सिर व् कानों वाला है विभो,<br>
 +
वह परम पुरुषोत्तम जनार्दन , व्याप्त कण - कण में प्रभो।<br>
 +
ब्रह्माण्ड को सब ओर से आवृत किए वह महान हैं,<br>
 +
सबको ही स्व में करके स्थित , कर रहा कल्याण है॥ [ १६ ]<br><br>
 
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वह परम प्रभु परमेश सारी इन्द्रियों से विहीन है,<br>
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फ़िर भी सकल इन्द्रिय के विषयों में तो पूर्ण प्रवीण है।<br>
 +
परमेश प्रभु परमात्मा ही स्वामी है, सर्वेश है,<br>
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शासक बृहत,आश्रय विरल, अधिपति, शरण है, महेश है॥ [ १७ ]<br><br>
 
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 +
परमात्मा नव द्वार वाले , इस शरीरी नगर में,<br>
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स्थित है अन्तर्यामी रूप से , हर निमिष , हर पहर में।<br>
 +
जंगम व् स्थावर चराचर , जगत का वही केन्द्र है,<br>
 +
बाह्य जग लीला उसी की , केन्द्र सबका महेंद्र है॥ [ १८ ]<br><br>
 
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वह हाथ पैरों से रहित ,  पर ग्रहण गमन अपूर्व है,<br>
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और चक्षु, कर्णों के बिना , देखे , सुने सम्पूर्ण है।<br>
 +
अथ ज्ञेय व्  अज्ञेय का सब अर्थ ईश्वर जानता<br>
 +
उसको भला पर कौन जाने , किसमें इतनी महानता॥ [ १९ ]<br><br>
 
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अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परब्रह्म , महत से अति महत है,<br>
 +
वही जीवों की तो हृदय रूपी , गुफा में अथ निहित है।<br>
 +
सविता की करुणा दृष्टि से , मानव को करुणा प्राप्त है,<br>
 +
सब दुःख निषाद निःशेष होते हैं, यदि मानव आप्त है॥ [ २० ]<br><br>
 
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वेदज्ञ जो भी ब्रह्म के अति निकट , उनका कथन है,<br>
 +
मैं ब्रह्म पुराण पुरूष महत को ,  जानता हूँ नमन है।<br>
 +
ज़रा जन्म - मृत्यु से हीन , शाश्वत नित्य सत्य विराट है,<br>
 +
कण - कण बसा वही, प्राणियों में बस रहा सम्राट है॥ [ २१ ]<br><br>
 
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23:13, 4 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

य एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
य एवैक उद्भवे सम्भवे च य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१॥

यह विश्व रूप है जाल का, और जिसका अधिपति ब्रह्म है,
स्वरुप शासन शक्तियों से, सत्ता जिसकी अगम्य है।
वह एकमेव ही ब्रह्म पूर्ण समर्थ क्षमतावान है,
जो जानते परब्रह्म को वे ही अमर भी हैं, महान हैं॥ [ १ ]

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु र्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः ।
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः॥२

वही आत्म भू सत्ता व् शक्ति से विश्व पर शासन करे,
वही एकमेव अभिन्न पूर्ण जो सृष्टि का नियमन करे।
वही प्राणियों में प्राण, सृष्टि का नियामक रूप है,
वही प्रलय काले सृष्टि स्व में , समेट लेता अनूप है॥ [ २ ]

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रै-र्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥३॥

सर्वत्र चक्षु व् हाथ, मुख, वही पैरों वाला ही ब्रह्म है,
आकाश पृथ्वी का रचयिता , अगम मर्म अगम्य है।
हाथों से दो- दो जीवों को तो युक्त करता है प्रभो,
पंखों से दो-दो पक्षियों को , युक्त करता है विभो॥ [ ३ ]

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।
हिरण्यगर्भं जनयामास पूर्वं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥४॥

विश्वधिपति परब्रह्म का, जो रुद्र रूप उत्कर्ष है,
वही वृद्धि व् उत्पत्ति का सर्वज्ञ हेतु महर्षि है।
सृष्टि के आदि में हिरण्य गर्भ की, ब्रह्म ने की सर्जना,
वही स्वस्ति बुद्धि से हमें संयुक्त कर दे, प्रार्थना॥ [ ४ ]

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी ।
तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥५॥

शिव,सौम्य, पुण्य प्रभा प्रकाशित , रुद्र रूप महान जो,
उस मूर्ति से कल्याण पाओ , मानवों उसको भजो।
शिव शक्ति स्वस्ति अभिप्रियम , कल्याणमय गिरिशन्त हे!
तेरी कृपा की दृष्टि मात्र को, हम प्रनत हैं अनंत हे! ॥ [ ५ ]

याभिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥६॥

गिरिशन्त ! हे गिरिराज ! रक्षक तुम हिमालय के महा,
जो वाण धारण हाथ में , वह न विनाशक हो अहा !
उस वाण को कल्याण मय, होने दो हे करुणा निधे,
हिंसा जगत से जीव की , किंचित न होवे महाविधे॥ [ ६ ]

ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितार-मीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति ॥७॥

पूर्वोक्त जीव समूह जग से , ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ हैं,
सब जीवों में अनुकूल उनके जीवों के ही तिष्ठ हैं।
सब जगत को सब ओर से , घेरे हुए व्यापक महा,
उस एक ब्रह्म को जान , ज्ञानी अमर हो जाते यहाँ॥ [ ७ ]

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥८॥

जो ज्ञानी महिमामय परम परमेश प्रभु को जानता,
वही तम् अविद्या से परे , रवि रूप की हो महानता।
जिसे जान कर ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर सके,
फ़िर जन्म-मृत्यु विहीन हो, पद परम पाकर तर सके॥ [ ८ ]

यस्मात् परं नापरमस्ति किंचिद्य-स्मान्नणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् ।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक-स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥९॥

परमेश प्रभु से श्रेष्ठ , कोई दूसरा किंचित कहीं ,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म , महिम महे कोई अन्य अथ स्थित नहीं।
वही एक निश्छल भाव से , सम वृक्ष नभ आरूढ़ है,
ब्रह्माण्ड में परिपूर्ण स्थित , मर्म ब्रह्म के गूढ़ हैं॥ [ ९ ]

ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥

आकार हीन विकास शून्य , अति परम प्रभो जिसे विज्ञ है,
वे ही जन्म मृत्यु विहीन , जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्रतिज्ञ है।
इस मर्म से अनभिज्ञ जो , पुनि -पुनि जनम व् मरण के,
दुःख पाते और भटकते हैं, बिन करुणा निधि की शरण के॥ [ १० ]

सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ।
सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥११॥

सब ओर मुख सर ग्रीवा वाला है महत करुणानिधे,
सब प्राणियों के हृदय रूपी गुफा में है महाविधे।
प्रभु सर्वव्यापी है अतः, व्यापकता अणु- कण व्याप्त है,
साधक जहाँ जिस रूप में , चाहें वह सबको प्राप्त है॥ [ ११ ]

महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः ।
सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥१२॥

निश्चय ही प्रभुता पूर्ण प्रभु , शासक समर्थ महान है,
अविनाशी अव्यय ज्योतिमय के, न्याय पूर्ण विधान हैं।
अंतःकरण मानव का प्रेरित , करता अपनी ओर है,
किंतु मानव सुप्त , माया मोह में ही विभोर है॥ [ १२ ]

अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः ।
हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१३॥

अंगुष्ठ के परिमाण वाला है, ब्रह्म सबके हृदय में,
सम्यक विधि स्थित समाहित काल क्रम व् समय में।
निर्मल हृदय व् विशुद्ध मन , साधक यदि करे ध्यान तो,
वही जन्म -मृत्यु विहीन लीन हो, ब्रह्म में ही शत कृतो॥ [ १३ ]

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥१४॥

वह परम पुरुषोत्तम सहस्त्रों , चक्षु , सिर, पग युक्त है,
विश्वानि जग सब ओर से आवृत किए संयुक्त है।
नाभी से दस अंगुल जो ऊपर , हृदय में स्थित सदा,
है निर्विकारी , व्याप्त, हृदयों में दीन वत्सल वसुविदा॥ [ १४ ]

पुरुष एवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥१५॥

त्रिकाल चक्र तो ब्रह्म इच्छा के ही सब अनुरूप है,
खाद्यान्नों से विकसित है जो कुछ , ब्रह्म का ही स्वरुप है।
मोक्ष का स्वामी , अमिय रूपी अचिन्त्य की शक्ति से,
भावः बंधनों से मुक्त मानव होता प्रभु की भक्ति से॥ [ १५ ]

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१६॥

सर्वत्र ही मुख, आँख, सिर व् कानों वाला है विभो,
वह परम पुरुषोत्तम जनार्दन , व्याप्त कण - कण में प्रभो।
ब्रह्माण्ड को सब ओर से आवृत किए वह महान हैं,
सबको ही स्व में करके स्थित , कर रहा कल्याण है॥ [ १६ ]

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥१७॥

वह परम प्रभु परमेश सारी इन्द्रियों से विहीन है,
फ़िर भी सकल इन्द्रिय के विषयों में तो पूर्ण प्रवीण है।
परमेश प्रभु परमात्मा ही स्वामी है, सर्वेश है,
शासक बृहत,आश्रय विरल, अधिपति, शरण है, महेश है॥ [ १७ ]

नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥१८॥

परमात्मा नव द्वार वाले , इस शरीरी नगर में,
स्थित है अन्तर्यामी रूप से , हर निमिष , हर पहर में।
जंगम व् स्थावर चराचर , जगत का वही केन्द्र है,
बाह्य जग लीला उसी की , केन्द्र सबका महेंद्र है॥ [ १८ ]

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥१९॥

वह हाथ पैरों से रहित , पर ग्रहण गमन अपूर्व है,
और चक्षु, कर्णों के बिना , देखे , सुने सम्पूर्ण है।
अथ ज्ञेय व् अज्ञेय का सब अर्थ ईश्वर जानता
उसको भला पर कौन जाने , किसमें इतनी महानता॥ [ १९ ]

अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥२०॥

अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परब्रह्म , महत से अति महत है,
वही जीवों की तो हृदय रूपी , गुफा में अथ निहित है।
सविता की करुणा दृष्टि से , मानव को करुणा प्राप्त है,
सब दुःख निषाद निःशेष होते हैं, यदि मानव आप्त है॥ [ २० ]

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम् ॥२१॥

वेदज्ञ जो भी ब्रह्म के अति निकट , उनका कथन है,
मैं ब्रह्म पुराण पुरूष महत को , जानता हूँ नमन है।
ज़रा जन्म - मृत्यु से हीन , शाश्वत नित्य सत्य विराट है,
कण - कण बसा वही, प्राणियों में बस रहा सम्राट है॥ [ २१ ]