|सारणी=केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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<span class="upnishad_mantra">
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ।<br>
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥१॥ <br>
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केवल निमित्त थे देवता, यह ब्रह्म की ही विजय थी।<br>
माध्यम थे केवल देवता, शक्ति प्रभु की अजय थी॥ [ १ ]<br><br>
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तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥<br>
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::मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे।<br>::भक्त वत्सल भक्त वत्सलता से भी तो कृतज्ञ थे॥<br>::हित दर्प नाश को, दिव्य यक्ष के रूप में प्रभु आ गए। <br>::लख दिव्य रूप विराट अद्भुत देवता चकरा गए॥ [ २ ]<br><br></span> <span class="upnishad_mantra">तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥<br>
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श्री अग्नि देव को बुद्धि शक्ति का अधिक ही कुछ गर्व था।<br>
इति विदित करता हूँ अभी, है कौन मुझसे अन्यथा॥ [ ३ ]<br><br>
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तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।<br>
अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥<br>
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::अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?<br>::हे! अहम मन्यक देवता क्या तुम ही सार्वभौम हो ?<br>::"मैं तेज पुंज स्वरूप हूँ", प्रसिद्ध अग्नि हूँ अति महे।<br>::तुम कौन जो जाना नहीं, मुझे जातवेदा सब कहें॥ [ ४ ]<br><br> </span> <span class="upnishad_mantra">तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥<br>
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पृथ्वी में यह जो कुछ भी है, सब मेरी ही सामर्थ्य है।<br>
क्षण मात्र में करूं भस्म सब, मुझे कुछ नहीं असमर्थ है॥ [ ५ ] <br><br>
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तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।<br>
दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥<br>
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::रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने।<br>::करो भस्म तो जानूँ भला, अग्नित्व कितना आपमें॥<br>::पूर्ण दाहक शक्ति व्यर्थ थी, मौन हतप्रभ आ गए।<br>::यह दिव्य यक्ष महामहिम, अनभिज्ञ हम चकरा गए॥ [ ६ ] <br><br></span> <span class="upnishad_mantra">अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥७॥<br>
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अप्रतिम शक्तिमय वायुदेव को बुद्धि शक्ति का गर्व था।<br>
अभी दिव्य यज्ञ को ज्ञात कर मैं, दूर करता हूँ व्यथा॥ [ ७ ] <br><br>
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तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।<br>
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥<br>
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::अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ? <br>::हे! अहम् मन्यक वायु देव क्या तुम ही सार्वभौम हो ?<br>::उत्तर दिया तब वायु ने, गुण गर्व गौरव दर्प से।<br>::मातरिश्रिवा हूँ प्रसिद्ध वायु, सृष्टि मम संसर्ग से॥ [ ८ ] <br><br>
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तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥<br>
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उत्तर दिया यह वायु ने, मेरी शक्ति इतनी भव्य है।<br>
सब कुछ उड़ा दूँ निमिष में, पृथ्वी में जो दृष्टव्य है॥ [ ९ ] <br><br>
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तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।<br>
शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥<br>
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::रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने।<br>::इसको उड़ा दो जानूँ, कितना वायु तत्व है आपमें॥<br>::शक्ति प्रभु ने रोकी तो फिर, वायु तत्व का अर्थ क्या ?<br>::लज्जित हो लौटे, दिव्य यक्ष के ज्ञान की सामर्थ्य क्या ? [ १० ] <br><br></span> <span class="upnishad_mantra">अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति ।<br>तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥<br>
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इति तथा कथ दिव्य यक्ष के निकट इन्द्र त्वरित गए।<br>
वह आदि ब्रह्म तो निमिष मात्र में ही तिरोहित हो गए॥ [ ११ ] <br><br>
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स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।<br>
हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥<br>
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::फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए।<br>::उमा रूपा ब्रह्म विद्या को देख हतप्रभ रह गए॥<br>::सर्वज्ञ ज्ञाता उमा रूपा, मर्म यक्ष का आप ही।<br>::कुछ कहें सादर विनत हूँ, सर्वज्ञ आपसा है नहीं॥ [ १२ ] <br><br>
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