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− | सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है | + | बरफ़ पड़ी है |
− | सजे सजाए बंगले होंगे | + | सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है |
− | सौ दो सौ चाहे दो एक हज़ार | + | सजे-सजाए बंगले होंगे |
− | बस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार | + | सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार |
− | देवदारूमय | + | बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार |
+ | देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्यों कर अंगीकार | ||
− | चहल पहल का नाम नहीं है | + | चहल-पहल का नाम नहीं है |
− | + | बरफ़-बरफ़ है काम नहीं है | |
− | दप दप उजली | + | दप-दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में— |
− | चली | + | चली गईं हैं दूर-दूर तक |
− | नीचे ऊपर बहुत दूर तक | + | नीचे-ऊपर बहुत दूर तक |
− | सूनी सूनी सड़कें <br> | + | सूनी-सूनी सड़कें <br> |
− | मैं जिसमें ठहरा | + | मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है— |
− | पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है | + | पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है |
− | सुबह सुबह ही | + | सुबह-सुबह ही |
− | मैने इसको खोल लिया है | + | मैने इसको खोल लिया है |
− | देख रहा | + | देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसे |
− | बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे | + | बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे |
− | या कि विमानों में भर भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते | + | या कि विमानों में भर-भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते |
− | कास कुसुम अविराम | + | कास-कुसुम अविराम |
− | ढके | + | ढके जा रहे देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग |
− | ठिठुर रहीं | + | ठिठुर रहीं उंगलियाँ मुझे तो याद आ रही आग |
− | गरम गरम ऊनी लिबास से लैस | + | गरम-गरम ऊनी लिबास से लैस |
− | देव | + | देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात |
− | शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर | + | शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर |
− | सिमटे सिकुड़े नौकर चाकर चाय बनाते होंगे | + | सिमटे-सिकुड़े नौकर-चाकर चाय बनाते होंगे |
− | ठंड कड़ी है | + | ठंड कड़ी है |
− | सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है | + | सर्वश्वेत पार्वती-प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है |
− | + | बरफ़ पड़ी है | |
+ | </poem> |
11:10, 29 दिसम्बर 2008 का अवतरण
बरफ़ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे-सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार
बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार
देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्यों कर अंगीकार
चहल-पहल का नाम नहीं है
बरफ़-बरफ़ है काम नहीं है
दप-दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में—
चली गईं हैं दूर-दूर तक
नीचे-ऊपर बहुत दूर तक
सूनी-सूनी सड़कें
मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है—
पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है
सुबह-सुबह ही
मैने इसको खोल लिया है
देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसे
बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
या कि विमानों में भर-भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते
कास-कुसुम अविराम
ढके जा रहे देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उंगलियाँ मुझे तो याद आ रही आग
गरम-गरम ऊनी लिबास से लैस
देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
सिमटे-सिकुड़े नौकर-चाकर चाय बनाते होंगे
ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती-प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ़ पड़ी है