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तहख़ाने में / शरद बिलौरे
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09:54, 5 जनवरी 2009
<Poem>
तहख़ाने में
जितनेभी
जितने भी
भीतर जा सकता था गया
बाप-दादों के ज़माने की
बहुत-सी चीज़ें वहाँ दफ़न थीं
अनिल जनविजय
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