भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ऊहापोह / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[जयप्रकाश मानस]]
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=जयप्रकाश मानस
 +
|संग्रह=होना ही चाहिए आंगन / जयप्रकाश मानस
 +
}}
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
उफ़नती नदी की शक्ल में
 
+
उफनती नदी की शक्ल में
+
  
 
मसकता है लावा
 
मसकता है लावा
पंक्ति 37: पंक्ति 39:
 
जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से
 
जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से
  
विवेक गम हो जाता है
+
विवेक गुम हो जाता है
  
 
जैसे अनाड़ी के हाथ से
 
जैसे अनाड़ी के हाथ से

02:31, 5 मार्च 2008 के समय का अवतरण

उफ़नती नदी की शक्ल में

मसकता है लावा

और समतल पहाड़ियाँ उग आती हैं

गूँजता है बीहड़ों से

आदिम राग

गफा और भी ख़ूँखार हो उठता है

पौधे उतार फेंकना चाहते हैं हरीतिमा

राहु को घोषित कर देता है चैम्पियन

बुझता हुआ चन्द्रमा

लकड़हारा बन जाता है कालिदास

खाई कहाँ नज़र आती है खाई

आकाश जा बैठता है रसातल की जगह

उलटी दिशा में ज़ोरदार घूमने गलती है पृथ्वी

तेज़-तेज़ दौड़ने के बावजूद

रहते हैं वहीं के वहीं

बैठे-बैठे औंधे मुँह हो जाते हैं

जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से

विवेक गुम हो जाता है

जैसे अनाड़ी के हाथ से

गिर गया हो कोई सिक्का अथाह नीलिमा में


ऐसे वक़्त

सब कुछ होने के बावजूद कुछ नहीं होता

कुछ नहीं होने के बाद भी हो जाता है बहुत कुछ

ऊहापोह से बढ़कर ख़तरा

और क्या हो सकता है