"रूपांतर / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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समय को हम सहजता से खो देते हैं | समय को हम सहजता से खो देते हैं | ||
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विस्मृत कर देते हैं एक-एक कर | विस्मृत कर देते हैं एक-एक कर | ||
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इतिहास की सभी अभिधारणाओं को | इतिहास की सभी अभिधारणाओं को | ||
− | + | सदियाँ गुज़रने क्र बाद | |
− | सदियाँ | + | |
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जो होता है हमारे पास | जो होता है हमारे पास | ||
− | + | वह होती है महज घटनाओं की सागर-झाग | |
− | वह होती है महज घटनाओं की | + | जन-मन में कल्पित |
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− | जन मन में कल्पित | + | |
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मन्द और संदिग्ध | मन्द और संदिग्ध | ||
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शेष नहीं रहता तदभव कि सूर्य ने कितनी धूप दी | शेष नहीं रहता तदभव कि सूर्य ने कितनी धूप दी | ||
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कितने बिम्बित चन्द्रमाओं ने | कितने बिम्बित चन्द्रमाओं ने | ||
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उत्तेजित किया समुद्र को | उत्तेजित किया समुद्र को | ||
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कितने नाविकों पर बरपा हुए | कितने नाविकों पर बरपा हुए | ||
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पानियों के | पानियों के | ||
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उत्ताल तरंगित तूफ़ान | उत्ताल तरंगित तूफ़ान | ||
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अन्तत: जो हुए विलीन | अन्तत: जो हुए विलीन | ||
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समय, साधनों और दबावों की | समय, साधनों और दबावों की | ||
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तलछट में | तलछट में | ||
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होता है बड़ा जड़वत | होता है बड़ा जड़वत | ||
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इसका स्पर्श भी | इसका स्पर्श भी | ||
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जिसमें से लगातार | जिसमें से लगातार | ||
− | + | गुज़र रहे हैं हम | |
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एक-दूसरे को खोते हुए | एक-दूसरे को खोते हुए | ||
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होते अनन्त में विलीन | होते अनन्त में विलीन | ||
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पीछे हटता है मायावी आकाश | पीछे हटता है मायावी आकाश | ||
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अपने समग्र शाब्दिक मूल के साथ | अपने समग्र शाब्दिक मूल के साथ | ||
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ध्वन्यालोक में अवस्थित | ध्वन्यालोक में अवस्थित | ||
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परिणामी अन्तराल में बदलता | परिणामी अन्तराल में बदलता | ||
− | + | पार्श्व में सुनाई देती | |
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दूर से आती | दूर से आती | ||
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पानी की छप-छप। | पानी की छप-छप। | ||
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13:27, 12 जनवरी 2009 का अवतरण
समय को हम सहजता से खो देते हैं
विस्मृत कर देते हैं एक-एक कर
इतिहास की सभी अभिधारणाओं को
सदियाँ गुज़रने क्र बाद
जो होता है हमारे पास
वह होती है महज घटनाओं की सागर-झाग
जन-मन में कल्पित
मन्द और संदिग्ध
शेष नहीं रहता तदभव कि सूर्य ने कितनी धूप दी
कितने बिम्बित चन्द्रमाओं ने
उत्तेजित किया समुद्र को
कितने नाविकों पर बरपा हुए
पानियों के
उत्ताल तरंगित तूफ़ान
अन्तत: जो हुए विलीन
समय, साधनों और दबावों की
तलछट में
होता है बड़ा जड़वत
इसका स्पर्श भी
जिसमें से लगातार
गुज़र रहे हैं हम
एक-दूसरे को खोते हुए
होते अनन्त में विलीन
पीछे हटता है मायावी आकाश
अपने समग्र शाब्दिक मूल के साथ
ध्वन्यालोक में अवस्थित
परिणामी अन्तराल में बदलता
पार्श्व में सुनाई देती
दूर से आती
पानी की छप-छप।