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"भाषा के इस भद्दे नाटक में / चन्द्रकान्त देवताले" के अवतरणों में अंतर

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कोई नहीं देख पाटा
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फफूँद से ढँकी दिन की त्वचा
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महिमा-मण्डित महाकाव्य के बीचोंबीच
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दबा-चिपका चूहे का शव
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कोई नहीं ढूँढ पाता...
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वे भी जो अपने पसीने से
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घुमाते हैं समय का पहिया
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नहीं जानते अपनी ताक़त
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क्योंकि उनके हाथ
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नमक ओ' प्याज के टुकड़े को ढूँढते-ढूँढते
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एक दिन काठ के हो जाते हैं
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वहां से,उस ऊँची जगह से
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वे कुछ कहते हैं
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हम कुछ सुनते हैं
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किंतु वह कौनसी भाषा है
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जो दाँतों के काटे नहीं कटती
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जो आँतों में पहुँचकर अटक जाती है
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कभी एक बूँद खून टपकाता हुआ छोटा-सा चाकू
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अभी एक बित्ता उजास दिखाती हुई छोटी सी मोमबत्ती
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सौंपते हुए यह भाषा
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इतिहास के आमाशय
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और भूखंड के मस्तिष्क को
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पंगु बना देना चाहती है,
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20:04, 18 जनवरी 2009 का अवतरण


तुम मुझसे पूछते हो
मैं तुमसे पूछता हूँ
सुबह हो जाने के बाद
क्या सचमुच सुबह हो गयी है

भय से चाकू ने
हादसे की नदी में डुबो दिया है
समय की तमाम ठोस घटनाओं को
ताप्ती का तट, सतपुड़ा की चट्टानें,
इतिहास के हाथी-घोड़े
कवितायेँ मुक्तिबोध की
ये सब बँधी हुई मुट्ठी के पास
क्या एक तिनका तक नहीं बनते

उत्साह की एक छोटी-सी मोमबत्ती से
चुँधिया गयी हैं कितनी तेजस्वी आँखें
कोई नहीं देख पाटा
फफूँद से ढँकी दिन की त्वचा
महिमा-मण्डित महाकाव्य के बीचोंबीच
दबा-चिपका चूहे का शव
कोई नहीं ढूँढ पाता...

वे भी जो अपने पसीने से
घुमाते हैं समय का पहिया
नहीं जानते अपनी ताक़त
क्योंकि उनके हाथ
नमक ओ' प्याज के टुकड़े को ढूँढते-ढूँढते
एक दिन काठ के हो जाते हैं

वहां से,उस ऊँची जगह से
वे कुछ कहते हैं
हम कुछ सुनते हैं
किंतु वह कौनसी भाषा है
जो दाँतों के काटे नहीं कटती
जो आँतों में पहुँचकर अटक जाती है
कभी एक बूँद खून टपकाता हुआ छोटा-सा चाकू
अभी एक बित्ता उजास दिखाती हुई छोटी सी मोमबत्ती
सौंपते हुए यह भाषा
इतिहास के आमाशय
और भूखंड के मस्तिष्क को
पंगु बना देना चाहती है,