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<br>चौ०-सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
<br>हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥सोई॥१॥
<br>राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
<br>तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥अनुमाना॥२॥
<br>तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
<br>जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥अभिमानी॥३॥
<br>करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
<br>तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥पीरा॥४॥
<br>दो०-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
<br>जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥१२१॥
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<br>चौ०-सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
<br>राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥एका॥१॥
<br>जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
<br>द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥कोऊ॥२॥
<br>बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
<br>कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥मोचन॥३॥
<br>बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
<br>होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥बिस्तारा॥४॥
<br>दो०-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
<br>कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥१२२॥
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<br>चौ०-मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
<br>एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥अनुरागी॥१॥
<br>कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
<br>एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥संसारा॥२॥
<br>एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
<br>संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥मारा॥३॥<br>परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥पुरारी॥४॥
<br>दो०-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
<br>जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥१२३॥
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<br>चौ०-तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
<br>तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥दयऊ॥१॥
<br>एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
<br>प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥घनेरी॥२॥
<br>नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
<br>गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥ग्यानि॥३॥
<br>कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
<br>यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥भारी॥४॥
<br>दो०- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
<br>जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥१२४(क)॥
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<br>चौ०-हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
<br>आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥भावा॥१॥
<br>निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
<br>सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥समाधी॥२॥
<br>मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
<br>सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥जलचरकेतू॥३॥
<br>सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
<br>जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥डेराहीं॥४॥
<br>दो०-सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
<br>छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥१२५॥
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<br>चौ०-तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
<br>कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥भृंगा॥१॥
<br>चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
<br>रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥प्रबीना॥२॥
<br>करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥
<br>देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥नाना॥३॥
<br>काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
<br>सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥जासू॥४॥
<br>दो०- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
<br>गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥१२६॥
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<br>चौ०-भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
<br>नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥सहाई॥१॥
<br>मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
<br>सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥नावा॥२॥
<br>तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
<br>मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥सिखाए॥३॥
<br>बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
<br>तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥तबहूँ॥४॥
<br>दो०-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
<br>भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥१२७॥
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<br>चौ०-राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
<br>संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥सिधाए॥१॥
<br>एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
<br>छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥श्रुतिमाथा॥२॥
<br>हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
<br>बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥दाया॥३॥
<br>काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
<br>अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥जाया॥४॥
<br>दो०-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
<br>तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥१२८॥
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चौ०-<br>सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
<br>ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥पीरा॥१॥
<br>नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
<br>करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥भारी॥२॥
<br>बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
<br>मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥सोई॥३॥
<br>तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
<br>श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥केरी॥४॥
<br>दो०-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
<br>श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥१२९॥
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<br>चौ०-बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
<br>तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥समाजा॥१॥
<br>सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
<br>बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥निहारी॥२॥
<br>सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
<br>करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥महिपाला॥३॥
<br>मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
<br>सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥बैठाए॥४॥
<br>दो०-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
<br>कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥१३०॥
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