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इस ख़ौफ़नाक दौर में / सरोज परमार
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02:54, 30 जनवरी 2009
<poem>
अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते
बँट
बाँट
जाते हैं पैने ख़ंजर
थपथपाते हैं मेज़ें
पीटते हैं थालियाँ
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
कहाँ है मुकम्मल सुख?
तुम्ही
तुम्हीं
बताओ किन भरोसेमन्द हाथों में
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.
</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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