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एक आदमी / धूमिल

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बन्द करती हुई चली जाती है
और दरवाज़े पर
सिटकिना सिटकिनी का रंग बरामदे केअंधकार अन्धकार में घुल जाता है
जब मैं काम से नहीं होता
याने की मैं नहीं ढोता
जिससे शालीनता इतनी ज़्यादा टपक चुकी है
कि वहाँ एक तैरता हुआ पत्थर है
संभावनाओं सम्भावनाओं में लगातार पहलू बदलता हुआ
अपनी पराजित और जड़-विहीन हँसी पर
अतीत और मानसून का खोखलापन
धक्का खायी हुई 'रीम' की तरह
उदास - फैल जाता है
मेरे पास अक्सर एक आदमी आता है
और हर बार
मेरी डायरी के अगले पन्ने पर
बैठ जाता है।
</poem>
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