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दोहे / चंद्रसेन विराट

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कोयल, मैना, बुलबुलें, सारे सुर से मूक
'पॉप' सिखाता है उन्हें, देखो एक उलूक
 
काव्य-सृजन के पूर्व थे, आप जगत औ' छन्द
जगत हटा तो रह गये, आप और आनन्द
 
ऑंखों को जैसा दिखा, लिखा उसी अनुसार
कवि-कौशल से कथन को, थोड़ा दिया निखार
 
यश खुद करता फैसला, किसे करे कब शाद
कुछ को जीते जी मिला, कुछ को मरने बाद
 
नील नयन की झील में, कमल खिले थे खूब
जो उतरा चुनने उन्हें, गया बिचारा डूब
 
आग लिखी है, आग को, आग जलाकर बाँच
लपट लगेगी शब्द से, पंक्ति पंक्ति से ऑंच
 
प्रजातंत्र की सिध्दि है, हो अनेक में एक्य
प्रजातंत्र की शक्ति है, होना नहीं मतैक्य
 
हमें प्यार में चाहिए, एकाकी अधिकार
अनाधिक स्वीकार है, किंतु न साझेदार
 
प्रेम समर्पण भाव की, अति विश्वस्त प्रशस्ति
'अपना है कोई कहाँ'-, देता यह आश्वस्ति
 
फागुन में बरसा गया, जैसे सावन मास
मौसम तानाशाह है, नहीं किसी का दास
 
अच्छे को कहते बुरा, कहे पेड़ को ठूंठ
वे, विपक्ष उनके लिए, पक्ष सदा ही झूठ
 
कहाँ मित्रता एक सी, भिन्न दृष्टियां, कोण
कृष्ण-सुदामा है जहाँ, वहीं द्रुपद औ' द्रोण
 
उथला ज्ञानार्जन किया, समझ न पाते गूढ़
पकड़े बैठे रुढ़ को, कुछ विद्वान विमूढ
 
कोण भुजाएँ सम रहें, प्रेम त्रिभुज हो भव्य
कृष्ण, राधिका, रुक्मिणी, उदाहरण दृष्टव्य
 
हर सुयोग दुर्योग का, बनता योगायोग
मिल बैठे संयोग है, बिछड़े तो दुर्योग
 
हारे उसकी जीत है, जीते उसकी हार
प्रेम-नदी को डूबकर, करना पड़ता पार
 
क्यों तिथि देखें? क्यों करें?, शुक्ल पक्ष की खोज
चंद्रमुखी! तुम साथ तो, हमें पूर्णिमा रोज
 
तुम्हीं अप्सरा, तुम सती, क्या अद्भुत संयोग
क्या विचित्र अनुभव हुआ, साथ भोग के जोग
 
हँसी खुशी इस हाथ हो, आंसू हो उस हाथ
जीकर तो देखो कभी, खुशी और गम साथ
 
कहा बब्रु ने 'पांडवो! झूठ तुम्हारा गर्व
एक सुदर्शन चक्र ने, कौरव मारे सर्व'
 
बड़ों बड़ों से भी कभी, हो जाती है भूल
भीष्म हेतु अंबा-हरण, बना मृत्यु का शूल
 
भीड़ बजायेगी बहुत, उत्साहों के शंख
उड़ा सकेंगे पर तुम्हें, सिर्फ तुम्हारे पंख
 
प्रेम भले आया तुम्हें, हमें न आया रास
तुम इसलिए प्रसन्न हो, हम इसलिए उदास