भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उजियारे के कतरे / यश मालवीय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[यश मालवीय]]
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=यश मालवीय
 +
}}
 
[[Category:गीत]]
 
[[Category:गीत]]
[[Category:कविताएँ]]
 
[[Category:यश मालवीय]]
 
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
+
 
 
लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,  
 
लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,  
  

14:20, 27 जनवरी 2008 का अवतरण


लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,

राजमार्ग भी, पगडंडी से ज्यादा संकरे हैं ।



हर उपसर्ग हाथ मलता है प्रत्यय झूठे हैं,

पता नहीं हैं, औषधियों को दर्द अनूठे हैं,

आँखें मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं ।



पेड़ धुएं का लहराता है अँधियारों जैसा,

है भविष्य भी बीते दिन के गलियारों जैसा

आँखों निचुड़ रहे से उजियारों के कतरे हैं ।



उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं,

देख मज़ारों को हम शीश झुकाया करते हैं,

सही बात कहने के सुख के अपने ख़तरे हैं ।