"कवि / मुकुटधर पांडेय" के अवतरणों में अंतर
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− | बतलाओ, वह कौन है | + | बतलाओ, वह कौन है जिसको कवि कहता सारा संसार? |
− | रख देता शब्दों को क्रम से, घटा-बढ़ा जो किसी | + | रख देता शब्दों को क्रम से, घटा-बढ़ा जो किसी प्रकार। |
− | क्या कवि वही ? काव्य किसलय क्या उसका ही लहराता है, | + | क्या कवि वही? काव्य किसलय क्या उसका ही लहराता है, |
− | जिसके यशः सुमन-सौरभ से निखिल विश्व भर जाता | + | जिसके यशः सुमन-सौरभ से निखिल विश्व भर जाता है। |
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नहीं, नहीं, मेरे विचार में कवि तो है उसका ही नाम | नहीं, नहीं, मेरे विचार में कवि तो है उसका ही नाम | ||
− | यम-दम-संयम के पालन युत होते हैं जिसके सब | + | यम-दम-संयम के पालन युत होते हैं जिसके सब काम। |
रहती है कल्पना–कामिनी जिसके हृदय-कमल आसीन | रहती है कल्पना–कामिनी जिसके हृदय-कमल आसीन | ||
− | संचारित करती सदैव जो भाँति-भाँति के भाव | + | संचारित करती सदैव जो भाँति-भाँति के भाव नवीन। |
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भूत, भविष्यत्, वर्तमान पर होती है जिसकी सम दृष्टि | भूत, भविष्यत्, वर्तमान पर होती है जिसकी सम दृष्टि | ||
− | प्रतिभा जिसकी मर्त्यधाम में करती सदा सुधा की | + | प्रतिभा जिसकी मर्त्यधाम में करती सदा सुधा की वृष्टि। |
जो करुणा श्रृंगार, हास्य वीरादि नवों रस का आधार | जो करुणा श्रृंगार, हास्य वीरादि नवों रस का आधार | ||
− | जिसको ईश्वरीय तत्वों का अनुभव युत है ज्ञान- | + | जिसको ईश्वरीय तत्वों का अनुभव युत है ज्ञान-अपार। |
पंक्ति 37: | पंक्ति 37: | ||
जिसकी इच्छा से अरण्य में रम्य फूल खिल जाता है | जिसकी इच्छा से अरण्य में रम्य फूल खिल जाता है | ||
− | नंदन वन से पारिजात की लता छीन जो लाता | + | नंदन वन से पारिजात की लता छीन जो लाता है। |
मरीचिका-मय मरुस्थली में जिसकी आज्ञा के अनुसार | मरीचिका-मय मरुस्थली में जिसकी आज्ञा के अनुसार | ||
− | कलकल नादपूर्ण बहती है अतिशय शीतल जल की | + | कलकल नादपूर्ण बहती है अतिशय शीतल जल की धार। |
(सरस्वती, अक्टूबर 1919 में प्रकाशित) | (सरस्वती, अक्टूबर 1919 में प्रकाशित) |
14:22, 1 सितम्बर 2006 का अवतरण
कवि: मुकुटधर पांडेय
~*~*~*~*~*~*~*~
बतलाओ, वह कौन है जिसको कवि कहता सारा संसार?
रख देता शब्दों को क्रम से, घटा-बढ़ा जो किसी प्रकार।
क्या कवि वही? काव्य किसलय क्या उसका ही लहराता है,
जिसके यशः सुमन-सौरभ से निखिल विश्व भर जाता है।
नहीं, नहीं, मेरे विचार में कवि तो है उसका ही नाम
यम-दम-संयम के पालन युत होते हैं जिसके सब काम।
रहती है कल्पना–कामिनी जिसके हृदय-कमल आसीन
संचारित करती सदैव जो भाँति-भाँति के भाव नवीन।
भूत, भविष्यत्, वर्तमान पर होती है जिसकी सम दृष्टि
प्रतिभा जिसकी मर्त्यधाम में करती सदा सुधा की वृष्टि।
जो करुणा श्रृंगार, हास्य वीरादि नवों रस का आधार
जिसको ईश्वरीय तत्वों का अनुभव युत है ज्ञान-अपार।
जिसकी इच्छा से अरण्य में रम्य फूल खिल जाता है
नंदन वन से पारिजात की लता छीन जो लाता है।
मरीचिका-मय मरुस्थली में जिसकी आज्ञा के अनुसार
कलकल नादपूर्ण बहती है अतिशय शीतल जल की धार।
(सरस्वती, अक्टूबर 1919 में प्रकाशित)