भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"राधिका / विष्णु विराट" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=विष्णु विराट | |
− | + | }} | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
जान कर उससे ठगी है राधिका। | जान कर उससे ठगी है राधिका। | ||
16:22, 24 मई 2009 के समय का अवतरण
जान कर उससे ठगी है राधिका।
श्याम की इतनी सगी है राधिका॥
आंख में अरुणाभ डोरे कह रहे हैं,
रतजगी या रतिजगी है राधिका॥
देह से यह प्राण तक है, रसोवैस:,
उस रसिक के रसपगी है राधिका॥
गौर-श्यामल द्वैत में अद्वैत लगती,
उस विरल रंग में रंगी है राधिका॥
बावरी-सी कुंज गलियों में भटकती,
नेह की क्या लौ लगी है राधिका॥
उमड़ता घनश्याम, उसके अंक सिमटी,
बीजुरी-सी जगमगी है राधिका॥