"कुछ अशआर / फ़ानी बदायूनी" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: इस बाग़ में जो कली नज़र आती है। तसवीरे-फ़सुर्दगी नज़र आती है॥ कश...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | इस बाग़ में जो कली नज़र आती है। | + | {{KKGlobal}} |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=फ़ानी बदायूनी | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }}इस बाग़ में जो कली नज़र आती है। | ||
तसवीरे-फ़सुर्दगी नज़र आती है॥ | तसवीरे-फ़सुर्दगी नज़र आती है॥ | ||
पंक्ति 51: | पंक्ति 55: | ||
अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है॥ | अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है॥ | ||
+ | |||
+ | |||
+ | हमको मरना भी मयस्सर नहीं जीने के बग़ैर। | ||
+ | |||
+ | मौत ने उम्रे-दो रोज़ा का बहाना चाहा॥ | ||
+ | |||
+ | |||
+ | बिजलियाँ शाख़े-नशेमन पै बिछी जाती है। | ||
+ | |||
+ | क्या नशेमन से कोई सोख्ता-सामाँ<ref>दग्धहृदय</ref> निकला? | ||
+ | |||
+ | |||
+ | ‘फ़ानी’ की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी यारब। | ||
+ | |||
+ | मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क़ चाहिए था॥ | ||
{{KKMeaning}} | {{KKMeaning}} |
18:46, 7 जुलाई 2009 के समय का अवतरण
इस बाग़ में जो कली नज़र आती है।तसवीरे-फ़सुर्दगी नज़र आती है॥
कश्मीर में हर हसीन सूरत ‘फ़ानी’।
मिट्टी में मिली हुई नज़र आती है॥
फूलों की नज़र-नवाज़ रंगत देखी,
मख़लूक़ कि दिल-गुदाज़ हालत देखी,
कु़दरत का करिश्मा नज़र आया कश्मीर,
दोज़ख़ में समोई हुई जन्नत देखी॥
दैर में हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरे ही ग़म में गुज़रेगी॥
हाँ नाखू़ने-ग़म कमी न करना।
डरता हूँ कि ज़ख़्मेदिल न भर जाये॥
ग़ैरत हो तो ग़म की जुस्तजू कर।
हिम्मत हो तो बेक़रार हो जा॥
चुन लिया तेरी मुहब्बत ने मुझे।
और दुनिया हाथ मलकर रह गई॥
हूँ असीरे-फ़रेबे-आज़ादी<ref>स्वतंत्रता के धोके का क़ैदी</ref>।
पर है और मश्क़े-हीलये-परवाज़<ref>पर होते हुए भी न उड़ने के लिए बहाना ढूँढ़ना</ref>
इश्क है परतवे-हुस्ने-महबूब<ref>प्रेयसी के सौंदर्य का प्रतिबिम्ब</ref>।
आप अपनी ही तमन्ना क्या खू़ब॥
अब लब पै वोह हंगामये-फ़रियाद नहीं है।
अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है॥
हमको मरना भी मयस्सर नहीं जीने के बग़ैर।
मौत ने उम्रे-दो रोज़ा का बहाना चाहा॥
बिजलियाँ शाख़े-नशेमन पै बिछी जाती है।
क्या नशेमन से कोई सोख्ता-सामाँ<ref>दग्धहृदय</ref> निकला?
‘फ़ानी’ की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी यारब।
मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क़ चाहिए था॥